ज्ञानेश्वरी पृ. 323

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-10
विभूति योग


सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन ।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वाद: प्रवदतामहम् ॥32॥
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्व: समासिकस्य च ।
अहमेवाक्षय: कालो धाताहं विश्वतोमुख: ॥33॥

यदि सारे नक्षत्रों को चुनने की इच्छा हो तो जिस प्रकार गगन की गठरी बाँधने की आवश्यकता होगी अथवा यदि पृथ्वी के परमाणुओं को गिनने की अभिलाषा हो तो पूरी पृथ्वी को बगल में दबाने की जरूरत होगी, उसी प्रकार यदि मेरी समस्त विभूतियों को देखने की अभिलाषा हो तो स्वयं मेरा ही ज्ञान प्राप्त करना पड़ेगा। जिस प्रकार यदि शाखाओं सहित सारे पुष्पों और फलों को अपने हाथ में लेने की कामना हो तो जड़सहित वृक्ष को ही उखाड़ कर हाथ में लेना पड़ेगा। उसी प्रकार यदि मेरी समस्त विभूतियों के विषय में ज्ञान प्राप्त करने की अभिलाषा हो तो मेरे निर्दोष व्यापक स्वरूप का ही ज्ञान प्राप्त करना पड़ेगा और नहीं तो मैं अपनी अलग-अलग विभूतियाँ कहाँ तक गिनाऊँगा? इसलिये हे महामति, तुम संक्षेप में यही जान लो कि मैं ही सब कुछ हूँ।

हे किरीटी, जैसे वस्त्र के आदि, मध्य और अन्त में सूत-ही-सूत रहता है, वैसे ही इस सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और नाश-इन तीनों अवस्थाओं में मैं ही रहता हूँ। जब मेरी इस व्यापकता का ज्ञान न हो, तब फिर पृथक्-पृथक् सब विभूतियाँ बतलाने की क्या जरूरत है? परन्तु तुममें इनती सामर्थ्य नहीं है कि तुम मेरी व्यापकता को जान सको; इसलिये मैंने तुम्हें इतनी बातें बतला दी हैं और तुम्हारे लिये यही बातें यथेष्ट हैं। परन्तु तुमने जिस दृष्टि से मेरी विभूतियों के विषय में पूछा है, उसी दृष्टि से मैं भी बतलाता हूँ; सुनो। समस्त विद्याओं में अध्यात्म विद्या ही मेरी प्रधान विभूति है। बोलने वालों में जो वाद होता है और जिसके बारे में न तो कभी सब शास्त्रों की एकवाक्यता ही होती है और न जिसका कभी अवसान ही होता है, वह वाद भी मैं ही हूँ। मिटाने की चेष्टा करने पर जो वाद और भी बढ़ता है तथा जोर पकड़ता है, जिसके कारण सुनने वालों के मन में उत्प्रेक्षा से ईर्ष्या बढ़ती है और जिससे वक्ताओं के भाषण में माधुर्य आता है, वह वाद भी मैं ही हूँ। श्रीगोविन्द ने कहा कि अक्षरों में जो पहला अक्षर ‘अ’ कार है, वह भी मेरी ही विभूति है। मैं ही समासों में द्वन्द्व समास हूँ। मसक से लेकर ब्रह्मदेवपर्यन्त सबका ग्रास करने वाला काल भी मैं ही हूँ। अनन्त काल मेरुप्रभृति पर्वतों सहित समस्त भूमण्डल को पिघला देता है, प्रलयकाल में समस्त विश्व को जलमग्न करने वाले असीम सागर को भी जो महाकाल जहाँ-का-तहाँ सुखा देता है और आकाश जिसके पेट में समा जाता है, लक्ष्मी के संग क्रीड़ा करने वाले श्रीकृष्ण ने कहा कि वह महाकाल भी मैं ही हूँ और इसी प्रकार फिर से सृष्टि का सृजन करने वाला भी मैं ही हूँ।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (259-273)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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