श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-2
सांख्य योग
अर्जुन उवाच अर्जुन ने कहा-“हे देव! सुनिये, इन सब बातों का तो यहाँ कोई औचित्य ही नहीं है। सबसे पहले आप ही इस युद्ध के स्वरूप को देखिये और फिर विचार कीजिये। यह केवल युद्ध ही नहीं है, अपितु प्रमाद है; बड़ा भारी अपराध है। जो मेरी दृष्टि में प्रकट पाप है, यह कार्य करने में मुझे दोष दीख रहा है। यदि में युद्ध में प्रवृत्त होता हूँ तो मुझे इस पाप का भागी होना पड़ेगा। निःसन्देह इसमें मुझे स्वजनों की हत्या के महादोष का भी सामना करना पड़ेगा। हे प्रभो, जरा आप ही विचार करें कि जब मुझे यह मालूम है कि माता-पिता आदरणीय हैं और उन्हें सम्यक् प्रकार से सन्तुष्ट रखना चाहिये, तब भला उन्हीं का वध मैं अपने हाथों से कैसे कर सकता हूँ? हे देव! सन्त-महापुरुषों के समुदाय को सदा नमन करना चाहिये और सम्भव हो तो उनकी पूजा भी करनी चाहिये। किन्तु यह सब कुछ छोड़-छाड़कर उलटे क्या हमें उनकी निन्दा ही करनी चाहिये? उसी प्रकार से हमारे सम्बन्धी और कुलगुरु तो हमारे लिये सदा पूजनीय हैं। इन पितामह भीष्म और द्रोणाचार्य के तो मुझ पर अनन्त उपकार हैं। देखिये, जिनसे हमारा मन स्वप्न में भी वैर नहीं कर सकता, उन्हीं की यहाँ प्रत्यक्ष हत्या कैसे की जा सकती है? अब आगे जीवन धारण करने में नाम की शोभा नहीं है। न मालूम आज इन लोगों को हो क्या गया है कि इन्हीं गुरुजनों से सीखी गयी शस्त्रविद्या का अभ्यास आज हम लोग इन्हीं पर करना चाहते हैं। मेरी योग्यता का श्रेय तो केवल गुरु द्रोणाचार्य को ही जाता है। धनुर्विद्या का ज्ञान मुझे इन्हीं से मिला है। अब क्या उस उपकार का भार वहन करते हुए मैं इन्हीं का वध करूँ? जिनकी कृपा-प्रसाद का वरदान मुझे मिलना चाहिये, मैं उन्हीं का अहित-चिन्तन करूँ? क्या मैं इस तरह का भस्मासुर हो गया हूँ?[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (30-38)
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