ज्ञानेश्वरी पृ. 303

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-10
विभूति योग


यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् ।
असंमूढ: स मर्त्येषु सर्वपापै: प्रमुच्यते ॥3॥

और वहाँ स्थिर रहकर निर्मल आत्म-प्रकाश में अपने नेत्रों से मेरा अजत्व-स्वरूप देखता है और जो इस प्रकार मेरा वह विशुद्ध अविनाशी स्वरूप जानता है, जो मूल कारण से परे का और सब लोगों का महेश्वर है, उसके सम्बन्ध में तुम्हें यह अच्छी तरह से जान लेना चाहिये कि वह जीवरूपी पत्थरों में पारस की ही तरह है। जैसे समस्त रसों में अमृत-रस श्रेष्ठ है वैसे ही उसके सम्बन्ध में तुम्हें यह भली-भाँति जान लेना चाहिये कि वह मनुष्यों में साक्षात् मेरा ही अंश है। ऐसे व्यक्ति को चलता हुआ ज्ञानरूपी सूर्य का मण्डल ही जानना चाहिये। उसके अवयव मानो सुखरूपी वृक्ष के कोमल अंकुर ही होते हैं। उसमें जो मनुष्य-भाव दृष्टिगत होता है वह वास्तव में भ्रम है और केवल लौकिक दृष्टि के कारण दृष्टिगत होता है। उसके उस मनुष्य-भाव में सत्यांश नहीं है। यदि कपूर में किसी प्रकार हीरा भी मिल जाय और दोनों के ऊपर कहीं से जल आ पड़े तो कपूर तो गल जायगा, पर उसके साथ वह हीरा नहीं गलेगा। इसी प्रकार ऐसा व्यक्ति मनुष्य लोक में निवास करने के कारण भले ही ऊपर से देखने पर प्राकृत मनुष्यों की तरह दृष्टिगोचर हो, पर फिर भी उसमें प्रकृति (माया) के दोष की गन्ध भी नहीं होती। पाप स्वतः उसका परित्याग कर भाग जाते हैं और जैसे जलते हुए चन्दन-वृक्ष का त्यागकर सर्प दूर चला जाता है, वैसे ही समस्त संकल्प उस मनुष्य को भी त्यागकर दूर चले जाते हैं जो मुझे जानता है। अब यदि तुम्हारे चित्त में यह जिज्ञासा उठ खड़ी हो कि मेरा इस प्रकार का ज्ञान मनुष्य को कैसे हो सकता है, तो वह उपाय मैं तुम्हें बतलाता हूँ। तुम ध्यानपूर्वक सुनो कि मेरे भाव (विकार) कौन-कौन-से हैं, मैं कैसा हूँ और मेरे धर्म कैसे हैं। मेरे जो भाव भिन्न-भिन्न समस्त जीवों में भरे हैं, वे इस प्रकार त्रिभुवन में फैले हुए हैं कि जिस जगह पर और जिसमें वे रहते हैं, उसकी स्थिति के अनुरूप ही रहते हैं।[1]

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681
  1. (74-82)

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