श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-10
विभूति योग
मेरे स्वरूप का प्रतिपादन करने में वेदों ने भी चुप्पी साध ली। मन और प्राण भी पंगु हो गये हैं। सूर्य और चन्द्र बिना रात के ही अस्त हो गये हैं अर्थात् ये सब मेरा वर्णन करने में असमर्थ हैं। जैसे माता के उदर में स्थित गर्भ माता का वय नहीं देख सकता, वैसे ही किसी देवता को कभी मेरा ज्ञान नहीं हो सकता। जैसे कोइ जलचर अगाध समुद्र को माप नहीं सकता, अथवा मसक जैसे लाँघकर आकाशमण्डल का विस्तार पार नहीं कर सकता, वैसे ही इन महर्षियों का ज्ञान भी मुझे नहीं जान सकता। मैं कौन हूँ, कितना बड़ा हूँ, किससे उत्पन्न हुआ हूँ, इत्यादि प्रश्नों को निर्णय करते-करते लोगों को अनेक कल्प बीत गये। इसका प्रमुख कारण यही है कि ये जितने देवता, महर्षि और अन्य सारे जीव है, उनका आदि कारण मैं ही हूँ। इसीलिये, हे पाण्डव! मेरे विषय में जानना अत्यन्त कठिन है। यदि नीचे की ओर प्रवाहमान जल फिर उलटकर पर्वत पर चढ़ सकता हो अथवा ऊपर की ओर बढ़ता हुआ वृक्ष यदि फिर अपनी जड़ की ओर लौट सकता हो तो फिर मुझसे उत्पन्न होने वाला यह जगत् भी मुझे जान सकता है। यदि वट-वृक्ष् के सूक्ष्म अंकुर में संपूर्ण वटवृक्ष आवृत्त किया जा सकता हो अथवा जल की तरंगों में सारा समुद्र भरा जा सकता हो अथवा मिट्टी के परमाणु में यह पूरा भूमण्डल समा सकता हो, तभी ये जीवमात्र, महर्षि तथा देवता इत्यादि, जो मुझसे ही उत्पन्न हुए हैं, मुझे जान सकते हैं। किन्तु इतना होने पर भी जो कोई लौकिक प्रवृत्ति की आगे बढ़ाने वाली चाल का परित्याग कर इन्द्रियों की ओर अपनी पीठ कर लेता है अथवा जिसकी प्रवृत्ति की वह आगे वाली चाल जारी रहती है, वह भी यदि पीछे की ओर पलटकर और अपना देह-भाव भूलकर पंचमहाभूतों के शिखर पर चढ़ जाता है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (64-73)
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