ज्ञानेश्वरी पृ. 301

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-10
विभूति योग

बार-बार अग्नि में तपाने पर और उसे साफ करने पर स्वर्ण की कान्ति और भी अधिक बढ़ती है। इसीलिये, हे पाण्डुसुत! लोग यह समझने लगते हैं कि स्वर्ण को अच्छीतरह तपाकर शुद्ध करना चाहिये। इसी प्रकार हे पार्थ! मैं तुम पर कोई उपकार नहीं कर रहा हूँ, बल्कि स्वयं अपनी लालसा और अनुराग से अपने ही संतोष के लिये ये बातें तुमसे बार-बार कहता हूँ। लोग नन्हें-नन्हें बच्चों को आभूषण पहना देते हैं। भला उन बच्चों को उन आभूषणों का क्या ज्ञान होता है? पर उन आभूषणों का सुखोपभोग माता की आँखे ही करती हैं। इसी प्रकार ज्यों-ज्यों तुम्हें आत्मकल्याण का लाभ होता है, त्यों-त्यों मेरा सुख भी निरन्तर द्विगुणित होता जाता है। पर हे अर्जुन, अब इन अलंकारिक बातों को जाने दो। अब तो मैं स्पष्ट रूप से तुम्हारे स्नेह में भूल गया हूँ। इसीलिये अब प्रेम से परिपूर्ण मेरा मन तुमसे वही बातें बार-बार कहता हुआ भी नहीं अघाता। पर अब ये बातें बहुत हो चुकीं। अब तुम अपने चित्त को एकाग्र करके मेरी बातें सुनो। हे अर्जुन! मेरा परम श्रेष्ठ वचन सुनो। इन वचनों में स्वयं परब्रह्म अक्षरों का रूप धारण करके तुम्हारा प्रगाढ़ालिंगन करने के लिये आ रहा है। पर फिर भी, हे किरीटी! मेरा वास्तविक और निश्चित ज्ञान अभी तक तुम्हें नहीं हुआ है। जो मैं यहाँ तुमको दृष्टिगत हो रहा हूँ, वही मैं यह समस्त विश्व हूँ।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (50-63)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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