ज्ञानेश्वरी पृ. 300

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-10
विभूति योग


श्रीभगवानुवाच
भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वच: ।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥1॥

मैंने अभी तक जितनी बातें कही थीं, वह सब सिर्फ यही जानने के लिये कि इस विषय की ओर तुम्हारा कितना ध्यान है। इस परीक्षा से यह सिद्ध हुआ कि इस विषय की ओर तुम्हारा ध्यान अधूरा नहीं बल्कि भरपूर है। सबसे पहले घट में थोड़ा-सा जल डालकर यह देखा जाता है कि वह जल उस घट में ठहरता है अथवा चू जाता है और जब वह पहले का डाला हुआ जल चूता नहीं तो उसमें और अधिक जल डालकर वह घट भरा जाता है। इसीलिये मैंने तुम्हें पहले-पहले थोड़ी-सी बातें बतलायी थीं और अब यह सिद्ध हो गया है कि तुम्हें सब बातें बतला देना ही समीचीन (ठीक) है। जिस समय कोई नया भृत्य नियुक्त किया जाय उस समय उसकी परख करने के लिये कोई कीमती वस्तु किसी ऐसी जगह पर रख देनी चाहिये, जहाँ सहज में ही उसकी दृष्टि उस वस्तु पर पड़े और जब उसके मन में उस वस्तु के प्रति लालसा न उत्पन्न हो और इस प्रकार वह अपनी विश्वसनीयता का पूरा-पूरा भरोसा दिला दे, तब उस भृत्य को भण्डार आदि के काम पर लगाना चाहिये। इसी प्रकार हे किरीटी, तुम मेरी कसौटी पर खरे उतरे हो और इसलिये अब तुम मेरे सब कुछ हो गये हो।” सर्वेश्वर श्रीकृष्ण ने इस प्रकार अर्जुन से कहा और तब जैसे ऊँचे पर्वतों को देखकर मेघ भर जाता है और वृष्टि करने के लिये तत्पर हो जाता है, वैसे ही श्रीकृष्ण भी प्रेम से भर गये और कहने लगे-“हे वीर शिरोमणि अर्जुन, ध्यानपूर्वक सुनो। पहले जितनी बातें मैं तुम्हें बतला चुका हूँ वही अब मैं फिर से बतलाता हूँ। जब मनुष्य प्रत्येक वर्ष खेती करता रहता है और प्रत्येक वर्ष उसे अच्छी फसल भी प्राप्त होती रहती है, तब खेती के लिये मेहनत करने में उसका जी नहीं ऊबता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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