श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग
तुम अपना मन मद्रूप कर लो और मेरे प्रेम के भजन में रँग जाओ और सर्वत्र मेरा अस्तित्व मानकर मेरा नमन करो। एकमात्र मेरी ही ओर लक्ष्य रखकर सारे संकल्पों का नाश कर डालना ही मानो मेरा निर्मल यजन करना है। जब इस प्रकार तुम मेरे ध्यान से सम्पन्न हो जाओगे, तभी तुम मेरे वास्तविक स्वरूप को प्राप्त कर सकोगे। अपने अन्तःकरण का यह रहस्य आज मैंने तुम्हारे सामने खोलकर रख दिया है। आज तक मैंने जो बात सब लोगों से एकदम छिपाकर रखी है, उसे प्राप्त करके तुम सुख से भर जाओगे।” संजय ने कहा-“भक्त कल्पद्रुम उन परब्रह्म साँवले श्रीकृष्ण ने इस प्रकार अर्जुन को उपदेश दिया।” बूढ़ा धृतराष्ट्र इन सब बातों को सुनकर ठीक उसी प्रकार बैठा रहा, जिस प्रकार कोई आलसी भैंसा नदी का जल बढ़ जाने पर भी चुपचाप आराम से बैठा रहता है। उस समय संजय ने सिर हिलाकर मन-ही-मन कहा कि यहाँ अमृत की निरन्तर वृष्टि हो रही है और यह धृतराष्ट्र ऐसी चुप्पी साधे हुए है कि मानो यहाँ है ही नहीं। पर फिर भी यह हमारा दाता है, पोषक है; इसलिये इसके सम्मुख कोई बात साफ-साफ कहना अपनी वाणी को दूषित करने के सिवाय कुछ भी नहीं है। अब क्या किया जाय! इसका स्वभाव ही ऐसा है। परन्तु फिर भी मैं बड़ा ही सौभाग्यशाली हूँ क्योंकि युद्ध-क्षेत्र का सारा हाल सुनाने के लिये श्रीव्यासदेव ने मुझे नियुक्त किया है। इस प्रकार बहुत प्रयत्नपूर्वक अपने मन को दृढ़ करके संजय ये सब बातें अपने मन-ही-मन में कह रहे थे कि उस समय सात्त्विक भाव का उनमें आवेश हुआ और वे स्वयं को न सँभाल सके। उनका चित्त विस्मित हो गया, वाणी स्तब्ध हो गयी और आपादमस्तक रोमांचित हो उठा। उनकी अर्धोन्मीलित आँखों से आनन्द के आँसू बहने लगे। उनके मन में सुख की जो तरंग उठी थी, उससे उनका शरीर काँपने लगा। उनके रोम-मूलों में स्वेद के निर्मल कण चमकने लगे और ऐसा जान पड़ने लगा कि मानो उन्होंने अपने पूरे शरीर पर मोतियों का एक जाल-सा ओढ़ लिया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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