ज्ञानेश्वरी पृ. 287

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग

यदि देह के समस्त अवयव विद्यमान हो, किन्तु वह चेतनाशून्य हो तो उस दशा में वह देह एकदम निरुपयोगी होगा। ठीक इसी प्रकार मेरी भक्ति से विरहित प्राणी धिक्कार का पात्र होता है; क्योंकि इस प्रकार जीवन धारण करने वाले व्यक्तियों और पृथ्वी पर पड़े हुए पत्थरों में अन्तर ही क्या है? जैसे कँटीले सेंहुड़ के पेड़ की छाया बुद्धिमान् लोग जान-बूझकर बचा जाते हैं और उसकी छाया में नहीं बैठते, वैसे ही पुण्य भी अभक्त को बचा जाते हैं और उसकी छाया में नहीं बैठते‚ वैसे ही पुण्य भी अभक्त को बचा जाते हैं और उसके निकट नहीं जाते। नीम का वृक्ष चाहे फल से भरकर झुक ही क्यों न जाय, पर फिर भी उस पर सिर्फ कौए ही मौज करते हैं। इसी प्रकार भक्ति से विरहित व्यक्ति चाहे अत्यधिक सामर्थ्यवान् क्यों न हो जाय, पर फिर भी वह एकमात्र दोषों का ही विस्तार करता है। यदि किसी खपड़े में षड्रस व्यंजन परोसकर चतुष्पथ पर रख दिया जाय तो उससे कुत्तों का खौरा रोग ही बढ़ता है। इसी प्रकार भक्ति से हीन व्यक्ति का जीवन भी होता है। उससे स्वप्न में भी कोई सुकृत्य नहीं होते। वह जीवन ऐसी थाली के सदृश होता है जिसमें संसार के दुःखरूपी पक्वान्न परोसे हुए होते हैं। अत: चाहे उत्तम कुल न हो, चाहे शूद्र की जाति हो, इतना ही नहीं, यदि पशु का भी शरीर हो तो भी कुछ हानि नहीं है। हे पार्थ! देखो; जिस समय ग्राह ने गजेन्द्र को पकड़ लिया था, उस समय उसने मुझे पुकारा था। बस, भक्तिपूर्वक मेरा स्मरण करते ही वह मेरे स्वरूप को प्राप्त हो गया और उसका पशुत्व भी तत्क्षण ही सदा-सदा के लिये मिट गया।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (425-442)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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