श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग
हो सकता है कि तुम यह पूछो कि वह मैं कैसा हूँ? तो उसका एकमात्र उत्तर यह है कि मैं सब भूतों में समभाव से रहता हूँ। मुझमें अपने और पराये का लेशमात्र भी भेदभाव नहीं है। जो जीव मेरा सत्य-स्वरूप पहचान लेते हैं, अहंकार का नाश कर देते हैं, सब कर्मों और भावों के द्वारा मेरा ही भजन करते हैं, यानी अपना समस्त जीवन और कर्म मुझे ही समर्पित कर देते हैं; वे चाहे शरीर में भी रहें, पर यथार्थतः वे शरीर में नहीं होते, बल्कि वे पूर्णरूप से मेरे स्वरूप में ही रहते हैं और मैं भी उन्हीं में रहता हूँ। इतना विशाल वटवृक्ष अपने पूर्ण विस्तार के साथ एक तुच्छ बीज में विलीन रहता है और वह बीज उसी वटवृक्ष में रहता है। इसी प्रकार मुझमें और ऐसे भक्तों में सिर्फ बाहरी और नाममात्र का अन्तर रहता है; पर यदि अन्दर की वस्तुस्थिति का विचार किया जाय तो जो कुछ मैं हूँ, वही मेरे भक्त भी हैं और हम दोनों में कोई भेदभाव नहीं होता। जैसे किसी व्यक्ति से माँगकर लाया हुआ आभूषण यदि पहन लिया जाय तो भी उसके सम्बन्ध में किसी को यह भाव नहीं होता यह आभूषण मेरा है, वैसे ही मेरे भक्त यद्यपि शरीर धारण करते हैं, परन्तु फिर भी वे कभी उसे अपना नहीं मानते। पुष्प की सुगन्ध वायु के साथ मिलकर सुदूर निकल जाती है और पीछे जो खाली पुष्प रह जाता है, वह तब तक डण्ठल के साथ संलग्न रहता है, जब तक कुम्हला कर गिर नहीं जाता। इसी प्रकार वह भक्त भी, जिसके अन्तःकरण से अपनेपन का भाव निकल जाता है, अन्तकाल तक किसी प्रकार अपनी आयुष्य धारण किये रहता है। हे किरीटी! जो अपने कर्तत्त्व के अहंकार का मुझ पर आरोप कर देता है, उसका अहंकार मुझमें ही समा जाता है और फिर वह अहंकार मेरे भक्त के लिये किसी प्रकार बन्धनकारक नहीं हो सकता।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (407-414)
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