ज्ञानेश्वरी पृ. 284

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग


समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय: ।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥29॥

हो सकता है कि तुम यह पूछो कि वह मैं कैसा हूँ? तो उसका एकमात्र उत्तर यह है कि मैं सब भूतों में समभाव से रहता हूँ। मुझमें अपने और पराये का लेशमात्र भी भेदभाव नहीं है। जो जीव मेरा सत्य-स्वरूप पहचान लेते हैं, अहंकार का नाश कर देते हैं, सब कर्मों और भावों के द्वारा मेरा ही भजन करते हैं, यानी अपना समस्त जीवन और कर्म मुझे ही समर्पित कर देते हैं; वे चाहे शरीर में भी रहें, पर यथार्थतः वे शरीर में नहीं होते, बल्कि वे पूर्णरूप से मेरे स्वरूप में ही रहते हैं और मैं भी उन्हीं में रहता हूँ। इतना विशाल वटवृक्ष अपने पूर्ण विस्तार के साथ एक तुच्छ बीज में विलीन रहता है और वह बीज उसी वटवृक्ष में रहता है। इसी प्रकार मुझमें और ऐसे भक्तों में सिर्फ बाहरी और नाममात्र का अन्तर रहता है; पर यदि अन्दर की वस्तुस्थिति का विचार किया जाय तो जो कुछ मैं हूँ, वही मेरे भक्त भी हैं और हम दोनों में कोई भेदभाव नहीं होता। जैसे किसी व्यक्ति से माँगकर लाया हुआ आभूषण यदि पहन लिया जाय तो भी उसके सम्बन्ध में किसी को यह भाव नहीं होता यह आभूषण मेरा है, वैसे ही मेरे भक्त यद्यपि शरीर धारण करते हैं, परन्तु फिर भी वे कभी उसे अपना नहीं मानते। पुष्प की सुगन्ध वायु के साथ मिलकर सुदूर निकल जाती है और पीछे जो खाली पुष्प रह जाता है, वह तब तक डण्ठल के साथ संलग्न रहता है, जब तक कुम्हला कर गिर नहीं जाता। इसी प्रकार वह भक्त भी, जिसके अन्तःकरण से अपनेपन का भाव निकल जाता है, अन्तकाल तक किसी प्रकार अपनी आयुष्य धारण किये रहता है। हे किरीटी! जो अपने कर्तत्त्व के अहंकार का मुझ पर आरोप कर देता है, उसका अहंकार मुझमें ही समा जाता है और फिर वह अहंकार मेरे भक्त के लिये किसी प्रकार बन्धनकारक नहीं हो सकता।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (407-414)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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