ज्ञानेश्वरी पृ. 282

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग


पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन: ॥26॥

इस प्रकार भक्त जब असीम प्रेमरस से सराबोर होकर किसी भी प्रकार का फल मुझे देने के लिये मेरी तरफ बढ़ाता है, तब मैं बड़ी उत्सुकता से उसे लेने के लिये अपने दोनों हाथ आगे बढ़ाता हूँ। यहाँ तक कि उसके डंठल तोड़ने तक के लिये भी नहीं रुकता और बड़े प्रेम से ज्यों-का-त्यों उसे ग्रहण करता हूँ। हे अर्जुन! यदि मेरा कोई भक्त भक्तिपूर्वक एक फूल भी मुझे देता है, तो उस समय भक्त के प्रेम से इतना अधिक भर जाता हूँ कि वह फूल भी मैं सूँघने के बाजय अपने मुख में रखकर खा जाता हूँ। परन्तु फूल की तो बात ही क्या है; यदि मेरा भक्त एक पत्ता भी अर्पित करता है, तो भी मैं यह नहीं देखता कि वह पत्ता ताजा है अथवा बासी या सूखा हुआ। मैं तो सिर्फ अपने भक्त का प्रेमभरा भाव ही देखता हूँ और वह पत्ता भी मैं वैसे ही सुखपूर्वक खाकर सन्तुष्ट होता हूँ, जैसे कोई बुभुक्षित (भूख से पीड़ित) व्यक्ति अमृत पीकर तृप्त होता है अथवा कभी ऐसा भी हो सकता है कि किसी को पत्ता भी नहीं मिलता, पर पानी की तो कहीं कमी नहीं रहती। वह तो सर्वत्र मुफ्त में ही मिल जाता है। किन्तु वही मुफ्त में मिला हुआ जल मेरा भक्त मुझे पूरे मनोयोग से अर्पित करता है तो मुझे ऐसा जान पड़ता है कि उस भक्त ने मानो मेरे लिये वैकुण्ठ से भी बढ़कर कोई निवास स्थान बनवा दिया है अथवा कौस्तुभ से भी बढ़कर निर्मल कोई अलंकार मुझे पहना दिया है अथवा क्षीरसागर से भी बढ़कर सुख देने वाले दूध के अपरिमित शयन स्थल मेरे लिये बनना दिये हैं अथवा कपूर, चन्दन और कृष्ण अगर-इन तीनों वस्तुओं का सुगन्धिमय, बहुत ऊँचा मेरु पर्वत मेरे उपभोग के लिये उत्पन्न कर दिया है अथवा दीपमाला के बदले एक दूसरा सूर्य ही लाकर खड़ा कर दिया है अथवा उसने गरुड़ जैसे वाहन या कल्पवृक्षों के उपवन या कामधेनु के झुण्ड ही मुझे अर्पित किये हैं अथवा अमृत से भी अधिक स्वादिष्ट अनेक प्रकार के दिव्य पक्वान्न उसने मेरे सामने परोस दिये हैं। जब मेरा भक्त मुझे जल की एक बूँद भी देता है, तब मुझे अपार सन्तोष तथा आनन्द होता है।

हे किरीटी! यह बहुत जरूरी नहीं है कि मैं तुम्हें ये सब बातें बतलाऊँ ही; कारण कि तुम तो अपनी आँखों से यह देख चुके हो कि भक्तिपूर्वक लाये हुए तीन मुटठी चावलों के लिये मैंने सुदामा के पोटली की गाँठे अपने हाथ से खोली हैं। मैं तो केवल भक्ति ही देखता हूँ और जहाँ भक्ति होती है, वहाँ मैं छोटे और बड़े के भेदभाव की कभी कल्पना भी नहीं करता। चाहे कोई भी हो और चाहे जैसा भी मेरा आतिथ्य करे, पर यदि मुझे उसमें सच्चा भाव दृष्टिगोचर होता है तो मैं तुरन्त ही प्रेमपूर्वक उसको ग्रहण करता हूँ। वास्तव में पत्र, पुष्प और फल इत्यादि वस्तुएँ तो भक्ति प्रदर्शित करने का साधनमात्र हैं। मुझे इन वस्तुओं से कोई लेना-देना नहीं। भक्ति-तत्त्व ही मेरे लिये सब कुछ है। इसलिये हे अर्जुन! इस योगसाधन की मैं एक सहज युक्ति तुम्हें बतलाता हूँ; ध्यानपूर्वक सुनो। यदि तुम वास्तव में भक्ति-तत्त्व की साधना करना चाहते हो तो अपने मन-मन्दिर से कभी मुझे विस्मृत मत होने दो।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (382-397)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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