ज्ञानेश्वरी पृ. 250

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग


न च मत्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् ।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावन: ॥5॥

यदि कार्य-कारण वाली कल्पना का परित्याग कर तुम मेरे उस स्वरूप का विचार करोगे जो प्रकृति (महामाया) के भी उस पार और उससे परे है, तो यह सिद्धान्त मिथ्या ठहरेगा कि सब जीवों का अस्तित्व मुझमें ही है, कारण कि सब कुछ मैं ही हूँ और मुझसे पृथक् अन्य कोई चीज नहीं है। पर जब प्रथम संकल्प के कारण परब्रह्म में ज्ञान और अज्ञान का संधिकाल उत्पन्न हुआ, तब बुद्धि के ज्ञानरूपी आँखों में कुछ अँधेरा-सा छा गया और इसीलिये जो परब्रह्म विकार और आकार-शून्य था, उसमें अविद्यारूपी सन्ध्या के कारण जीवमात्र परब्रह्म से भिन्न भासित होने लगे; किन्तु जब संकल्पजन्य अविद्यारूपी सन्ध्या का अवसान हो जाता है, तब जैसे शंका मिटते ही पुष्पमाला के सम्बन्ध का वह सर्पाभास समाप्त हो जाता है, जो कुछ-कुछ अन्धकार और कुछ-कुछ प्रकाश रहने के समय उत्पन्न होता है, वैसे ही जीवमात्र के सम्बन्ध में होने वाले भास का नाश हो जाता है और सिर्फ परब्रह्म ही अपने अखण्ड और शुद्ध स्वरूप में बाकी रह जाता है। यदि वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो क्या भूमि के अन्दर से मिट्टी के घट इत्यादि के अंकुर निकलते हैं? वास्तव में घटादि की सृष्टि तो कुम्हार के कल्पनारूपी गर्भ से होती है। अथवा क्या समुद्र के जल में तरंगों की कोई अलग खान होती हैं? तरंगें तो वास्तव में वायु के बहने से ही उत्पन्न होती हैं। इसी प्रकार क्या कपास के फल में कपड़ों की पेटी भरी रहती है? वह तो केवल पहनने वाले की दृष्टि से ही कपास से बने कपड़े कहलाते हैं। यदि स्वर्ण का अलंकार बना डाला जाय तो भी उसका स्वर्णपन नष्ट नहीं होता। उसमें सिर्फ बाह्यतः अलंकारता होती है और वह भी सिर्फ अलंकार धारण करने वाले की दृष्टि से ही होती है। प्रतिध्वनि से जो शब्द उठता है अथवा दर्पण में जो रूप दिखलायी पड़ता है, वह हमारी ही कही हुई बात अथवा हमारा ही रूप होता है अथवा स्वयं उस प्रतिध्वनिका या उस दर्पण का अंग होता है?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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