श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग
जो ज्ञान समस्त विद्याओं में सर्वश्रेष्ठ आचार्य पद पर विराजमान हो चुका है, जो समस्त रहस्य-ज्ञान के स्वामित्व का सेवन करता है, जो समस्त पवित्र वस्तुओं का राजा है, जो ज्ञान-धर्म का निजधाम है, जो ज्ञान उत्तमोत्तम है, जिसको पा जाने पर जीवन और मृत्यु के लिये कोई स्थान ही नहीं रह जाता, जो ज्ञान गुरुमुख से किंचित् उदित हुआ-सा जान पड़ता है, परन्तु वास्तव में जो प्रत्येक व्यक्ति के हृदय मे स्वयम्भू ही होता है और जो चाहे वह उसे स्वतः प्राप्त कर सकता है, इसके अलावा आत्मसुखरूपी सोपान पर चढ़ते ही जिस ज्ञान की प्राप्ति है और फिर सद्यः भोक्ता, भोग्य तथा भोग की त्रिपुटी का नाश हो जाने के कारण भोगने वाले का भोक्तृत्व भी उसी में विलीन हो जाता है, पर उस लयवाली स्थिति की इधर वाली सीमा पर ही जिसके कारण हृदय परम सुख से भर जाता है, वह ज्ञान यद्यपि सुलभ और सहज है, परन्तु फिर भी वह साक्षात् परब्रह्म ही है। इस ज्ञान का एक विशेष लक्षण यह भी है कि जब एक बार वह प्राप्त हो जाता है, तब फिर वह कभी खोया नहीं जा सकता और न कभी उसकी मधुरता ही कम होती है। हे पार्थ! हो सकता है कि तुम अपनी तर्क-बुद्धि लगाकर इस विषय में यह शंका खड़ी करो कि यदि यह इतनी अनुपम और अनमोल वस्तु है, तो फिर यह आज तक सब लोगों के पकड़ से बाहर कैसे रह गयी, जो लोग अपने धन की वृद्धि के लिये धधकती हुई आग में भी कूदने की हिम्मत करते हैं, वे अनायास ही मिलने वाले इस आत्मसुख के माधुर्य से क्यों वंचित रहते हैं, जो आत्मसुख पवित्र, रमणीय और सुख से प्राप्त होने-योग्य है तथा जो धर्म के अनुकूल होने के अलावा आत्मतत्त्व की भी उपलब्धि करा देता है और जिसमें समस्त सुखों का समावेश है, वह लोगों के पकड़ से अब तक बाहर कैसे रहा! तुम्हारे मन में ऐसी शंकाओं का उठना स्वाभाविक है, पर तुम इस शंका को अपने मन में मत आने दो।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (47-56)
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