ज्ञानेश्वरी पृ. 245

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग

जब इस प्रकार वक्ता और श्रोता के मेल की अनुकूल वायु बहने लगती है, तब हृदयाकाश में वक्तृत्व के रस-मेघ का संचार होता है; परन्तु यदि श्रोतागण उदासीनता के कारण अच्छी तरह से ध्यान न देंगे, तो वक्तृत्व-रस का बना-बनाया मेघ भी तितर-बितर हो जायगा, यह बात ठीक है कि चन्द्रकान्तमणि पसीजती है, पर उसको पसीजने में प्रवृत करने की सामर्थ्य केवल चन्द्रमा में ही होती है।

इस प्रकार जब तक योग्य श्रोता न हों, तब तक कोई वक्ता कभी वक्ता हो ही नहीं सकता। पर क्या कभी चावल को खाने वाले से यह विनम्र निवेदन करना पड़ता है कि मुझे मीठा समझकर खाइये? अथवा क्या कभी कठपुतलियों को अपने नचाने वाले सूत्रधार से यह अनुनय-विनय करना पड़ता है कि हमें नचाओ और फिर कठपुतलियों को नचाने वाला वह सूत्रधार कठपुतलियों को स्वयं उनकी भलाई के लिये नचाता है अथवा लोगों में अपने ज्ञान के महत्त्व की प्रसिद्धि करने के लिये नचाता है? फिर हम लोग इस प्रश्न की व्यर्थ की मीमांसा क्यों करें? ज्यों ही वक्ता ने यह कहा, त्यों ही श्रीसद्गुरु ने कहा कि अरे, इन सब बातों में क्या रखा है? हमें तुम्हारा आशय मालूम है। अब तुम यह बतलाओ कि श्रीकृष्ण देव ने क्या कहा। यह सुनकर श्रीनिवृत्तिनाथ के शिष्य ने अत्यन्त ही प्रसन्नतापूर्वक और उल्लास के साथ कहा कि अच्छा महाराज! सुनिये, श्रीकृष्ण ने क्या कहा।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (1-33)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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