श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग
क्या कभी चाँदनी को पकाने के लिये भी कोई उसे पाल में रखकर ढँकता है? अथवा क्या वायु के चलने के लिये कोई मार्ग बनाया जा सकता है? अथवा आकाश को क्या कभी कोई खोली पहना सकता है अर्थात् आकाश को कोई सीमा में बाँध नहीं सकता। जैसे पानी को पतला नहीं करना पड़ता अथवा मक्खन को मथने के लिये कोई उसमे मथानी नहीं डालता, वैसे ही गीता के जिस अर्थ को देखकर मेरा दुर्बल व्याख्यान लज्जित होकर स्वतः पीछे हट जाता है, केवल इतना ही नहीं, जो वेद शब्द-ब्रह्म है, वह भी शब्द की गति समाप्त हो जाने पर जिस गीतार्थरूपी खाट पर स्तब्ध होकर सो जाता है, वह गीतार्थ देशी भाषा में लाने की योग्यता भला मुझ में कहाँ से आ सकती है। किन्तु मुझ-जैसे दुर्बल ने भी जो यह हिम्मत की है, उसमें हेतु सिर्फ यही है कि मैं इस ढिठाई से ही आप-जैसे लोगों का प्रेम-पात्र बनूँ। इसलिये चन्द्रमा से भी अधिक शीतल और अमृत से भी अधिक जीवनदाता जो आप लोगों का अवधान है, उसका दान करके आप लोग मेरे मनोरथ का पोषण करें; क्योंकि ज्यों ही आप लोगों के कृपादृष्टि की वृष्टि होगी, त्यों ही मेरे समस्त मनोरथ सिद्ध हो जायँगे। पर यदि मुझे आप लोगों का यह कृपाभाव प्राप्त न होगा और आप लोग उदासीन रहेंगे तो मेरा ज्ञानांकुर भी सूख जायगा। सुनिये, वक्ता के वक्तृत्व का स्वाभाविक भोजन श्रोताओं की सावधानता ही है और यदि उसे यह भोजन मिलता रहे तो सिद्धान्त प्रतिपादक शब्द की तोंद फूल जाती है, ज्यों ही ऐसे शब्द निकलते हैं, त्यों ही अर्थ की प्रतिपत्ति होती है; क्योंकि अर्थ तो शब्दों की ही बाट जोहता है और जिस समय अर्थ की प्रतिपत्ति होती है उस समय उद्दिष्ट अर्थ की परम्परा लग जाती है और बुद्धि पर मानो भावों की पुष्प-वृष्टि होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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