ज्ञानेश्वरी पृ. 240

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-8
अक्षरब्रह्म योग

वास्तविकता यही है कि जिस समय उस घट का विनाश होता है, उस समय उसका सिर्फ आकार विनष्ट होता है और उसमें जो मूल आकाश रहता है, वह घड़े का आकार बनने से पहले भी रहता है और उसके नष्ट हो जाने पर भी वह ज्यों-का-त्यों बना रहता है। अब जो योगी इस प्रकार के ब्रह्मज्ञान की सहायता से ब्रह्मस्वरूप हो जाते हैं, उनके लिये कौन-सा मार्ग और कौन-सा अमार्ग है, इसका कोई बखेड़ा ही नहीं रह जाता। इसीलिये हे पाण्डुसुत! तुम्हें सदा योगयुक्त होकर रहना चाहिये। बस, इससे तुम्हें स्वतः ब्रह्मस्वरूप प्राप्त हो जायगा। फिर इस शरीर का बन्धन जब तक चाहे, तब तक रहे और जब चाहे, तब नष्ट हो जाय, पर तुम्हारे बन्धनरहित ब्रह्मस्वरूप में रत्तीभर भी बाधा नहीं हो सकती। वह ब्रह्मस्वरूप न तो संसार की रचना के समय ही जन्म के बन्धन में पड़ता है और न संसार का प्रलय होने पर भी वह मृत्यु के ही बन्धन में पड़ता है और न कल्प के आदि तथा तथा कल्पान्त के बीच वाले समय में ही इस प्रकार के व्यामोह में पड़ता है कि वह स्वर्ग है और यह संसार है। जो इस प्रकार का बोध प्राप्त करके योगी हेाता है वही इस बोध कर भरपूर उपयोग कर सकता है, क्योंकि वह विषय-भोगों पर लात मारकर आत्मस्वरूप को प्राप्त होता है। इन्द्रादि देवों का राज्य जिन सर्वस्व सुखों के कारण प्रसिद्ध है, उन्हें वह त्याज्य समझकर दूर फेंक देता है।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (247-260)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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