श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-1
अर्जुन विषाद योग
निहत्य धार्तराष्ट्रान्न: का प्रीतिस्याज्जनार्दन । यदि मैं अपने ही वंशजों का विनाश करूँगा तो मैं महापापों का केन्द्र स्थल बन जाऊँगा और फिर आप भी मेरे हाथ से निकल जायँगे। कुल की हत्या का पाप लग जाने पर फिर भला आपको कौन और कहाँ देखेंगे। जैसे जंगल में दावाग्नि को देखकर कोकिल वहाँ पलभर भी नहीं ठहरती अथवा पंकयुक्त सरोवर देखकर चकोर पक्षी उसका तिरस्कार करके वहाँ से चल देता है ठीक वैसे ही हे देव! यदि मेरे में से पुण्य संचय नष्ट हो गया तो, आप अपनी माया से मुझे मोह में डालकर मेरे पास आयेंगे नहीं। तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् । अत: न तो मैं यह युद्ध करूँगा और न ही शस्त्र को उठाऊँगा, कारण कि ऐसा करना मुझे हर प्रकार से बुरा ही जान पड़ता है। हे प्रभो! यदि आपसे ही मेरा वियोग हो जाय तो फिर मुझे आप ही बताएँ कि मेरे पास रह ही क्या जायगा? हे कृष्ण! उस वियोगकाल में तो आपके बिना मेरा हृदय ही तार-तार हो जायगा। इसलिये यह बात एकदम असम्भव है कि कौरवों का तो वध हो जाय और मैं राज्य का सुख भोग करूँ।” यह बात घटनी असम्भव है, इस प्रकार अर्जुन बोले।[1] |
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