ज्ञानेश्वरी पृ. 23

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-1
अर्जुन विषाद योग

निहत्य धार्तराष्ट्रान्न: का प्रीतिस्याज्जनार्दन ।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिन: ॥36॥

यदि मैं अपने ही वंशजों का विनाश करूँगा तो मैं महापापों का केन्द्र स्थल बन जाऊँगा और फिर आप भी मेरे हाथ से निकल जायँगे। कुल की हत्या का पाप लग जाने पर फिर भला आपको कौन और कहाँ देखेंगे। जैसे जंगल में दावाग्नि को देखकर कोकिल वहाँ पलभर भी नहीं ठहरती अथवा पंकयुक्त सरोवर देखकर चकोर पक्षी उसका तिरस्कार करके वहाँ से चल देता है ठीक वैसे ही हे देव! यदि मेरे में से पुण्य संचय नष्ट हो गया तो, आप अपनी माया से मुझे मोह में डालकर मेरे पास आयेंगे नहीं।

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिन: स्याम माधव ॥37॥

अत: न तो मैं यह युद्ध करूँगा और न ही शस्त्र को उठाऊँगा, कारण कि ऐसा करना मुझे हर प्रकार से बुरा ही जान पड़ता है। हे प्रभो! यदि आपसे ही मेरा वियोग हो जाय तो फिर मुझे आप ही बताएँ कि मेरे पास रह ही क्या जायगा? हे कृष्ण! उस वियोगकाल में तो आपके बिना मेरा हृदय ही तार-तार हो जायगा। इसलिये यह बात एकदम असम्भव है कि कौरवों का तो वध हो जाय और मैं राज्य का सुख भोग करूँ।” यह बात घटनी असम्भव है, इस प्रकार अर्जुन बोले।[1]

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681
  1. (225-227)

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