श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-8
अक्षरब्रह्म योग
जो आकारहीन होता है, जिसमें जन्म और मृत्यु का नामोनिशान-तक नहीं होता, जो सब कुछ देखने वाला है, जो आकाश से भी पुरातन है, जो परमाणुओं से भी अति सूक्ष्म है, जिसके सान्निध्य से विश्व को चैतन्यता मिलती है, जो समस्त जगत् को उत्पन्न करता है, जिसके कारण यह समस्त विश्व जीवन्त है, जिसके समक्ष कार्य-कारणवाला सम्बन्ध टिक नहीं सकता, जो कल्पनातीत है, जो दिन में चर्मचक्षुओं (स्थूल दृष्टि) के लिये वैसे ही अन्धकार के सदृश अगोचर रहता है, जैसे दीपक अग्नि के अन्दर पहुँच नहीं सकता अथवा जैसे तेज में अन्धकार प्रविष्ट नहीं हो सकता, जो पूर्णरूप से निर्मल किये हुए सूर्य-रश्मियों का पुंज है, जो ज्ञानिजनों के लिये नित्य उदित होने वाले सूर्य के सदृश है और जिसके लिये लक्षण से भी अस्तमान शब्द का प्रयोग नहीं किया जा सकता[1],
उस परिपूर्ण ब्रह्म को जो मृत्यु के समय शान्तचित्त से ज्ञानपूर्वक स्मरण करता है, जो इस बाह्य शरीर से पद्मासन लगाकर उत्तराभिमुख बैठता है, जो कर्मयोग का शाश्वत सुख पूरी तरह से स्वयं में भरकर भीतर-ही-भीतर एकत्रित मन की शक्ति से और ब्रह्मस्वरूप की प्राप्ति के प्रेम से अतिशीघ्र आत्मस्वरूप पाने के लिये सिद्ध किये हुए योग के सहयोग से, सुषुम्ना के बीच वाले मार्ग से, जब अग्निचक्र से ब्रह्मरन्ध्र की ओर जाने लगता है और जब प्राणवायु महदाकाश में संचरण करने लगता है, तब शरीरादि का और चित्त का संयोग जिसे अत्यन्त तुच्छ और ऊपरी दृष्टिगत होता है, पर जो मन की शान्ति से सँभला रहता है, भक्ति की भावना से परिपूर्ण रहता है और योगबल से भली-भाँति सिद्ध हुआ रहता है, वही जड़ (अचेतन) और अजड़ का (चेतन) लय करता है और भौहों के बीच में घूमता रहता है। जैसे घण्टा-नाद का लय घण्टे में ही हो जाता है अथवा जैसे घट के नीचे दबाकर रखे हुए दीपक के विषय में किसी को यह मालूम ही नहीं पड़ता कि वह कब बुझ गया, वैसे ही हे पाण्डव! जो इस प्रकार की शान्त अवस्था में यह देह त्याग देता है, वही पूर्ण परब्रह्म होता है। परम पुरुष नामक जो मेरा स्वयंसिद्ध तेजस्वरूप है, ठीक वही स्वरूप होकर वह रहता है।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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