ज्ञानेश्वरी पृ. 220

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-8
अक्षरब्रह्म योग

फिर जो बुद्धि उस ब्रह्मस्वरूप के साथ समरस होकर स्वयं ब्रह्म ही बन जाती है, वह किस प्रकार नष्ट-भ्रष्ट और अव्यवस्थित हो सकती है? इसीलिये जो लोग इस प्रकार अन्तकाल के समय अर्थात् देहावसान के समय मुझे जानते हुए देह का परित्याग करते हैं, वे मद्रूप ही हो जाते हैं। साधारणतः यही नियम है कि जब मृत्यु आती है, तब व्यक्ति जिसका स्मरण करता है, वही वह हो जाता है। जैसे कोई भयग्रस्त होकर पवन की गति से दौड़ने लगे और दौड़ता हुआ अकस्मात् कुएँ में गिर पड़े, उस समय उसके गिरने से पूर्व उसे गिरने से बचाने के लिये वहाँ कोई दूसरी वस्तु नहीं रहती और इसी कारण उस व्यक्ति के लिये, कुएँ में गिरने के अलावा और कोई रास्ता ही शेष नहीं रह जाता, वैसे ही जिस समय मृत्यु आती है, उस समय जीव के समक्ष जो कल्पना आकर खड़ी होती है, उसी कल्पना के रूप के साथ मिल जाने के अलावा उस जीव के लिये अन्य कोई उपाय ही नहीं रह जाता। इसी प्रकार जाग्रदवस्था में प्राणी को जिस चीज का सदा ध्यान बना रहता है, वही चीज आँख लगने पर उसे स्वप्नावस्था में भी दृष्टिगत होती है।[1]


यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावित: ॥6॥

इसी प्रकार जीवित अवस्था में प्राणी के अन्तःकरण में जो अभिलाषा शेष रह जाती है, मृत्यु के समय उसी अधूरी लालसा के प्रति उस जीव का अनुराग अत्यधिक बढ़ जाता है। और यह नियम है कि मृत्यु के समय जीव को जिसका स्मरण होता है, वह उसी की गति (योनि) को प्राप्त होता है।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (59-73)
  2. (74)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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