ज्ञानेश्वरी पृ. 22

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-1
अर्जुन विषाद योग

आचार्या: पितर: पुत्रास्तथैव च पितामहा: ।
मातुला: श्वशुरा: पौत्रा श्याला: सम्बंधिनस्तथा ॥34॥

ये कौन हैं, आप जानते नहीं क्या? जिनके हम पर असाधारण उपकार हैं, ऐसे भीष्म और द्रोण वे उस तरफ हैं, देखो! सभी सगे-सम्बन्धी, साले-ससुर, मामे, भाई-बन्धु तथा नाती-पोते आदि हमारे अपने ही यहाँ उपस्थित हैं। दे देव! आप जरा ध्यान से देखें कि यहाँ सब लोग अत्यन्त निकट के सगे-सम्बन्धी ही एकत्रित हुए हैं, इसीलिये इन सब बन्धु-बान्धवों के विषय में कोई भी अहितकर वचन बोलना भी मानो अपनी वाणी को दूषित करना है।[1]

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ।
अपि त्रलोक्यराज्यस्य हेतो: किं नु महीकृते ॥35॥

इससे तो यही श्रेयस्कर है कि ये लोग जो कुछ भी चाहें, वही करें अथवा ये मुझकों ही अभी और यहीं मार डालें, फिर भी मैं इन लोगों को मारने का विचार अपने मन में कभी भी न लाऊँ। यदि मुझे तीनों लोकों का भी निष्कण्टक राज्य मिल जाय तो भी मैं कभी इन लोगों के अनिष्ट की बात नहीं सोच सकता। यदि मैं आज यहाँ यह जघन्य कृत्य कर डालूँ तो फिर मेरे लिये किसके मन में पूज्यभाव रह जायगा। हे कृष्ण! फिर आप ही बताइये कि क्या इस कार्य से आपका मुँह हम लोगों को देखने के लिये मिलेगा।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (222-224)
  2. (225-227)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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