श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-1
अर्जुन विषाद योग
आचार्या: पितर: पुत्रास्तथैव च पितामहा: । ये कौन हैं, आप जानते नहीं क्या? जिनके हम पर असाधारण उपकार हैं, ऐसे भीष्म और द्रोण वे उस तरफ हैं, देखो! सभी सगे-सम्बन्धी, साले-ससुर, मामे, भाई-बन्धु तथा नाती-पोते आदि हमारे अपने ही यहाँ उपस्थित हैं। दे देव! आप जरा ध्यान से देखें कि यहाँ सब लोग अत्यन्त निकट के सगे-सम्बन्धी ही एकत्रित हुए हैं, इसीलिये इन सब बन्धु-बान्धवों के विषय में कोई भी अहितकर वचन बोलना भी मानो अपनी वाणी को दूषित करना है।[1] एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन । इससे तो यही श्रेयस्कर है कि ये लोग जो कुछ भी चाहें, वही करें अथवा ये मुझकों ही अभी और यहीं मार डालें, फिर भी मैं इन लोगों को मारने का विचार अपने मन में कभी भी न लाऊँ। यदि मुझे तीनों लोकों का भी निष्कण्टक राज्य मिल जाय तो भी मैं कभी इन लोगों के अनिष्ट की बात नहीं सोच सकता। यदि मैं आज यहाँ यह जघन्य कृत्य कर डालूँ तो फिर मेरे लिये किसके मन में पूज्यभाव रह जायगा। हे कृष्ण! फिर आप ही बताइये कि क्या इस कार्य से आपका मुँह हम लोगों को देखने के लिये मिलेगा।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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