ज्ञानेश्वरी पृ. 217

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-8
अक्षरब्रह्म योग


अधिभूतं क्षरो भाव: पुरुषश्चाधिदैवतम् ।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ॥4॥

अब मैं संक्षेप में अधिभूत के सम्बन्ध में बतलाता हूँ। जिस प्रकार अभ्र उत्पन्न होते और विलीन हो जाते हैं, उसी प्रकार जो ऊपर से तो देखने में आता है, पर सचमुच नश्वर है, जो पंचमहाभूतों के अंशों के परस्पर मिश्रण से बना हुआ है, जो भूतमात्र का आश्रय ग्रहण करके और उन्हीं में मिश्रित होकर भासमान होता है, किन्तु जो नाम-रूप इत्यादि से विशिष्ट भूत संयोग के बिगड़ते ही विनष्ट हो जाता है, उसी को अधिभूत कहते हैं। अधिदैव से पुरुष का आशय समझना चाहिये। जिन-जिन वस्तुओं की उत्पत्ति प्रकृति के द्वारा होती है, यह पुरुष ही उन सबका उपभोग करता है। यह ही बुद्धि का द्रष्टा है, यह पुरुष ही इन्द्रियरूपी देश का राजा है और यही वह वृक्ष है जिस पर देहावसान के बाद संकल्प-विकल्परूपी पक्षी जाकर विश्राम करते हैं। यह अधिदैव नाम का पुरुष वास्तव में मूल वाला परमात्मा ही है, पर परमात्मा से कुछ भिन्न दिखायी पड़ता है; क्योंकि यह अहंकाररूपी निद्रा के अधीन रहता है और इसीलिये स्वप्नसदृश माया के बखेड़े में हर्ष-शोकादि का अनुभव करता है। जिसे लोग स्वभावतः जीव-नाम से पुकारते हैं, वह इसी पंचभूतात्मक देहरूपी पिण्ड का अधिदैव है।

हे पाण्डुकुँवर! जो इस शरीररूपी ग्राम में शरीर-भाव का लय करता है, वह मैं ही हूँ और मुझे ही इस शरीर में का अधियज्ञ जानना चाहिये। इसके अलावा जो अधिदैव और अधिभूत हैं, वे दोनों भी वास्तव में मैं ही हूँ। परन्तु जब विशुद्ध स्वर्ण निकृष्ट स्वर्ण में मिल जाता है, तो क्या वह विशुद्ध स्वर्ण भी हल के स्तर का सोना नहीं हो जाता? पर फिर भी वह विशुद्ध स्वर्ण स्वयं कभी अपनी उत्तमता नहीं खोता और न ही उस निकृष्ट स्वर्ण का अंश ही होता है। परन्तु जब तक वह हलके और निकृष्ट स्वर्ण के साथ मिला रहता है, तब तक उसे हलका और निकृष्ट स्वर्ण ही कहना उचित है। वैसे ही ये अधिभूत इत्यादि जिस समय तक अविद्या के पर्दे से ढके हुए हैं, उस समय तक उन्हें मूल ब्रह्म से भिन्न ही मानना चाहिये। परन्तु जब अविद्या का पर्दा हट जाता है और भेद-बुद्धि की ग्रन्थि टूट जाती है, तब ये अधिभूत इत्यादि समस्त दृश्य समाप्त होकर और परब्रह्म के साथ मिलकर एकाकार हो जाते हैं। उस समय उनमें आपसी भेद भला कैसे रह सकता है? केशों के गाँठ पर यदि स्वच्छ स्फटिक-शिला रख दी जाय तो आँखों को वह स्फटिक-शिला विदीर्ण-सी दृष्टिगत होती है। किन्तु यदि उसके नीचे से केशों की वह गाँठ अथवा लट हटा ली जाय तो फिर कौन कह सकता है कि उस स्फटिक-शिला का वह विदीर्ण हुआ रूप कहाँ चला जाता है? क्या उस समय कोई उसके विदीर्ण अंशों को फिर से जोड़ देता है?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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