ज्ञानेश्वरी पृ. 216

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-8
अक्षरब्रह्म योग


श्रीभगवानुवाच
अक्षरं ब्रह्मा परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।
भूतभावोद्भवकरो विसर्ग: कर्मसंज्ञित: ॥3॥

सर्वेश्वर ने कहा-“जो वस्तु इस छिद्रयुक्त शरीर में रहने पर भी उसमें-से कभी बाहर नहीं गिरती, इसके विपरीत जो वस्तु इतनी सूक्ष्म है कि हम उसे शून्य भी नहीं कर सकते और जो आकाश के आँचल में से छानी गयी हो, पर इतनी विरल और सूक्ष्म होने पर भी जो हिलोरने पर भी प्रपंच की इस झोली में से नीचे नहीं गिरती, वह परब्रह्म है। वह ब्रह्म-तत्त्व ऐसा है कि यदि आकार उत्पन्न भी हो जाय तो भी वह जन्म का विकार नहीं जानता और आकार का नाश हो जाने पर भी उसका नाश नहीं होता। इस प्रकार का जो ब्रह्म-तत्त्व अपनी सहजावस्था में सदा रहता है, हे सुभद्रापति! उसी को अध्यात्म कहते हैं। निर्मल गगन में अनेक रंगों वाले घनपटल उत्पन्न तो होते हैं, पर उनके विषय में कोई यह नहीं जानता कि ये कैसे उत्पन्न होते हैं और कहाँ से आते हैं।

इसी प्रकार उस अमूर्त और शुद्ध ब्रह्म से प्रकृति और अहंकारादि कई तरह के भूत उत्पन्न होते हैं और उन्हीं से ब्रह्माण्ड का सृजन शुरू होता है। ‘एकोऽहं बहुस्याम्’ वाले संकल्प का बीज सर्वप्रथम निर्विकल्प ब्रह्म की भूमि में ही जमकर अंकुरित होता है और तब वह बहुत जल्दी ही ब्रह्माण्ड के रूप में चतुर्दिक् फैलकर भर जाता है यदि प्रत्येक ब्रह्माण्ड के गोलक को ध्यानपूर्वक देखा जाय तो वह उस आदि बीज से ही भरा हुआ दृष्टिगोचर होता है; परन्तु उनके मध्य में उत्पन्न तथा नष्ट होने वाले जीवों की गणना भी नहीं की जा सकती। फिर उन ब्रह्माण्ड के भिन्न-भिन्न अंश भी उसी आदि संकल्प (एकोऽहं बहुस्याम्) का शीघ्रता से जय करने लगते हैं, जिससे नाना प्रकार की इस अनन्य सृष्टि की वृद्धि होती है। किन्तु सृष्टि के इन समस्त पदार्थों में वह एक परब्रह्म ही भरा रहता है और यह अनेकत्व‚ यह भेद–भाव उस पर बाढ़ के सदृश छाया रहता है‚ इसी प्रकार यह भी बात समझ में नहीं आती कि इस सृष्टि में जो सम और विषम भाव दृष्टिगोचर होते हैं वे कैसे उत्पन्न होते हैं। यदि यह कहा जाय कि इस चराचर जगत् की रचना व्यर्थ मनोरंजन के लिये ही हुई है, तो उसमें उत्पन्न होने वाले जीवमात्र की लक्षाधिक प्रजातियाँ दृष्टिगत होती हैं। यदि सामान्य रूप से देखा जाय तो जीवों के इन अंकुरों की न तो गिनती ही की जा सकती है और न ही उनके भेद-भाव की कोई सीमा ही स्थिर की जा सकती है। किन्तु यदि उनके मूल के विषय में जानने का प्रयास किया जाय तो यही जान पड़ता है कि इन सबकी उत्पत्ति का मूल वही शून्य-ब्रह्म ही है। इस सृष्टि के मूल कर्ता का तो कहीं पता ही नहीं मिलता; साथ-ही-साथ इस सृष्टि का कहीं कोई कारण भी नहीं दिखायी पड़ता। परन्तु बीच में ही यह सृष्टिरूपी कार्य स्वतः तीव्र गति से आगे बढ़ने लगता है, इस प्रकार बिना किसी कर्ता के ही उस अमूर्त ब्रह्म पर यह जो इन्द्रियगम्य आकार की छाप पड़ती है, उसी को कर्म कहते हैं।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (15-29)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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