ज्ञानेश्वरी पृ. 21

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-1
अर्जुन विषाद योग

न काङ्‌क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ॥32॥
येषामर्थे काङ्‌क्षितं नो राज्यं भोगा: सुखानि च ।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥33॥

इसलिये विजय आदि जो लाभ हैं उनसे मुझे कुछ भी लेना-देना नहीं है। इस तरह के राज्य को लेकर मुझे क्या करना है! इन सब लोगों को मार करके जो सुख भोगने को मिलें उन सब सुखों में आग लगे।” फिर पार्थ ने कहा-“यदि वे सुख भोगने को न मिलें तो उस दशा में चाहे जो कुछ भी हो, वह सब सहन किया जा सकता है, किन्तु इसके लिये तो यदि प्राण भी गँवाने पड़ें तो वह भी मुझे स्वीकार है, पर यह बात मुझे स्वप्न में भी स्वीकार नहीं हैं कि पहले तो मैं इन्हें मारूँ और फिर स्वयं राज्यसुख भोगूँ। यदि मैं इन गुरुजनों का अहित सोचूँ तो फिर मेरा जन्म लेना ही व्यर्थ है। उसके बाद भी यदि मेरा जीवन बचा रहे तो फिर किसके लिये?

हर एक की इच्छा होती है कि मेरे आगे की पीढ़ी और आगे बढ़े, क्या उसका परिणाम यही है कि हम अपने वंश का समूल नाश कर डालें? अब यह बात भला मन में कैसे आ सकती है कि हम स्वजनों के प्रति वज्र के समान कठोर हो जायँ? हमें तो यथासम्भव इन लोगों की भलाई ही करते रहनी चाहिये। वैसे तो होना यह चाहिये कि हमारे द्वारा जुटायी गयी सुख-सामग्री का यही लोग उपभोग करें। इतना ही नहीं, इन लोगों के लिये तो हमें अपने जीवन को भी न्योछावर कर देना चाहिये। सबसे उत्तम बात यह होती कि हम दिग्-दिगन्त के समस्त भूपालों को जीतकर अपने वंशजों को ही सन्तुष्ट करें। इस समय हमारे वही सब भाई-बन्धु यहाँ आये हुए हैं; किन्तु विधि का विधान कुछ ऐसा प्रतिकूल आ पड़ा है कि ये लोग अपने धन-सम्पत्ति और पत्नी, पुत्र आदि सबको त्यागकर और अपना जीवन शस्त्रों की नोक पर लटकाकर यहाँ एक-दूसरे को मरने-मारने के लिये उद्यत हुए हैं। फिर ऐसे लोगों की हत्या भला मैं कैसे करूँ? इनमें से किन पर शस्त्र उठाऊँ? (ये कौरव यानी हम लोग ही हैं, इन लोगों को मारना यानी अपने को मारना है, इस दृष्टि से अर्जुन बोल रहे हैं।) अपने ही हृदय का घात मैं किस प्रकार करूँ?[1]

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (210-221)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः