ज्ञानेश्वरी पृ. 208

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-7
ज्ञानविज्ञान योग


नाहं प्रकाश: सर्वस्य योगमायासमावृत:।
मूढ़ोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ॥25॥

प्राणियों के नेत्रों पर योगमाया का पर्दा लगा रहता है जिससे लोग अन्धे बने रहते हैं और उन्हें कुछ भी नहीं सूझता। यही कारण है कि उजाले में भी वे मुझे देख नहीं सकते। अन्यथा क्या तुम एक भी ऐसी चीज का नाम बतला सकते हो, जिसमें मेरा निवास न हो? भला, क्या कोई ऐसा जल है जिसमें रस न हो? अथवा क्या कोई ऐसा पदार्थ है जो वायु के स्पर्श से दूर हो? अथवा क्या कोई ऐसी जगह है जो आकाश से रहित हो? बस, सिर्फ यही जान लो कि समस्त विश्व में एक अकेला मैं-ही-मैं हूँ।[1]


वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ॥26॥

हे अर्जुन! आज तक जो जीव हो गये हैं, वे इस समय मद्रूप होकर ही रहते हैं और वर्तमान समय में भी जितने जीव हैं, वे सब मद्रूप ही हैं यानी उनमें मैं ही हूँ भविष्य में जो जीव अभी उत्पन्न होने वाले हैं, वे भी मुझसे भिन्न नहीं हैं। यदि सच पूछा जाय तो केवल माया की ही बातें हैं और नहीं तो वास्तव में न कुछ होता ही है और न जाता ही है। जैसे रस्सी में भ्रम से दृष्टिगोचर होने वाले सर्प के विषय में यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि वह काला है अथवा चितकबरा आदि है, वैसे ही जीवमात्र के सम्बन्ध में भी निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यदि उनके मूल पर दृष्टिपात किया जाय तो वे सब मिथ्या ही है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (158-160)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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