श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-7
ज्ञानविज्ञान योग
प्राणियों के नेत्रों पर योगमाया का पर्दा लगा रहता है जिससे लोग अन्धे बने रहते हैं और उन्हें कुछ भी नहीं सूझता। यही कारण है कि उजाले में भी वे मुझे देख नहीं सकते। अन्यथा क्या तुम एक भी ऐसी चीज का नाम बतला सकते हो, जिसमें मेरा निवास न हो? भला, क्या कोई ऐसा जल है जिसमें रस न हो? अथवा क्या कोई ऐसा पदार्थ है जो वायु के स्पर्श से दूर हो? अथवा क्या कोई ऐसी जगह है जो आकाश से रहित हो? बस, सिर्फ यही जान लो कि समस्त विश्व में एक अकेला मैं-ही-मैं हूँ।[1]
हे अर्जुन! आज तक जो जीव हो गये हैं, वे इस समय मद्रूप होकर ही रहते हैं और वर्तमान समय में भी जितने जीव हैं, वे सब मद्रूप ही हैं यानी उनमें मैं ही हूँ भविष्य में जो जीव अभी उत्पन्न होने वाले हैं, वे भी मुझसे भिन्न नहीं हैं। यदि सच पूछा जाय तो केवल माया की ही बातें हैं और नहीं तो वास्तव में न कुछ होता ही है और न जाता ही है। जैसे रस्सी में भ्रम से दृष्टिगोचर होने वाले सर्प के विषय में यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि वह काला है अथवा चितकबरा आदि है, वैसे ही जीवमात्र के सम्बन्ध में भी निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यदि उनके मूल पर दृष्टिपात किया जाय तो वे सब मिथ्या ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (158-160)
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