ज्ञानेश्वरी पृ. 20

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-1
अर्जुन विषाद योग

संजय ने आगे कहा-हे राजन्! यह सब कुछ आदिपुरुष की माया है, यह विधाता के भी वश की बात नहीं। इसीलिये उस स्नेहवृत्ति ने अर्जुन को भी भ्रमित कर दिया। फिर संजय कहते हैं-हे महाराज! अब आगे का हाल सुनिये। इसके बाद अर्जुन ने युद्ध भूमि में अपने स्वजनों को देखकर युद्धविषयक अपना विचार त्याग दिया। वहाँ उसके चित्त में सदयता कहाँ से उत्पन्न हो गयी, कौन जाने तत्पश्चात् उसने भगवान् श्रीकृष्ण से कहा-

“हे भगवन्। अब हम लोगों का यहाँ क्षणभर भी रुकना उचित नहीं है। इन सबको मारना है, ऐसी बात मन में आते ही मेरा मन उद्विग्न हो रहा है और मुँह से अनाप-शनाप बातें निकल रही है।”[1]

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे॥31॥

यदि मैं इन कौरवों का वध करूँ तो युधिष्ठिर आदि का वध क्यों न करूँ? क्या ये दोनों ही मेरे वंशज नहीं है? इसलिये, भाड़ में जाय यह युद्ध। मैं तो सोच ही नहीं पा रहा हूँ कि यह महापाप करके मैं कौन-सा लक्ष्य सिद्ध कर लूँगा। हे देव! हर तरह से सोच-विचार करने पर मुझे तो यही प्रतीत होता है कि स्वजनों से युद्ध करना ही सर्वथा अनुचित होगा। बल्कि यदि यह युद्ध न किया जाय, तब भी कुछ लाभ हो, तो हो सकता है।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (193-206)
  2. (207-209)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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