श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-1
अर्जुन विषाद योग
संजय ने आगे कहा-हे राजन्! यह सब कुछ आदिपुरुष की माया है, यह विधाता के भी वश की बात नहीं। इसीलिये उस स्नेहवृत्ति ने अर्जुन को भी भ्रमित कर दिया। फिर संजय कहते हैं-हे महाराज! अब आगे का हाल सुनिये। इसके बाद अर्जुन ने युद्ध भूमि में अपने स्वजनों को देखकर युद्धविषयक अपना विचार त्याग दिया। वहाँ उसके चित्त में सदयता कहाँ से उत्पन्न हो गयी, कौन जाने तत्पश्चात् उसने भगवान् श्रीकृष्ण से कहा- “हे भगवन्। अब हम लोगों का यहाँ क्षणभर भी रुकना उचित नहीं है। इन सबको मारना है, ऐसी बात मन में आते ही मेरा मन उद्विग्न हो रहा है और मुँह से अनाप-शनाप बातें निकल रही है।”[1] निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव। यदि मैं इन कौरवों का वध करूँ तो युधिष्ठिर आदि का वध क्यों न करूँ? क्या ये दोनों ही मेरे वंशज नहीं है? इसलिये, भाड़ में जाय यह युद्ध। मैं तो सोच ही नहीं पा रहा हूँ कि यह महापाप करके मैं कौन-सा लक्ष्य सिद्ध कर लूँगा। हे देव! हर तरह से सोच-विचार करने पर मुझे तो यही प्रतीत होता है कि स्वजनों से युद्ध करना ही सर्वथा अनुचित होगा। बल्कि यदि यह युद्ध न किया जाय, तब भी कुछ लाभ हो, तो हो सकता है।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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