ज्ञानेश्वरी पृ. 196

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-7
ज्ञानविज्ञान योग


त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभि: सर्वमिदं जगत् ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्य: परमव्ययम् ॥13॥

पानी में पैदा होने वाला सेवार जैसे पूरे पानी को आच्छादित कर लेता है अथवा जैसे मेघों से सम्पूर्ण आकाश ढक जाता है अथवा स्वप्न को यद्यपि असत्य कहा जा सकता है, पर फिर भी जिस समय तक नींद रहती है, उस समय तक स्वप्न जिस प्रकार सत्य प्रतीत होता है और हमें स्वयं अपनी ही स्मृति नहीं रहती अथवा नेत्र ही अपनी पुतली पर जो जाला उत्पन्न कर देता है, और वह जाला जैसे नेत्र की दृष्टि समाप्त कर देता है, वैसे ही यह त्रिगुणात्मक माया भी मेरी परछाईं है और वह मेरे आत्मस्वरूप की ओट में ही यवनिका की भाँति पड़ी हुई है। यही कारण है कि ये प्राणी मुझे पहचान नहीं सकते। वे मुझसे ही उत्पन्न हुए हैं, परन्तु यह बात नहीं है कि जो कुछ वे हैं, वह मैं ही हूँ। जल में ही उत्पन्न होने वाला मोती जैसे जल में कभी नहीं गलता अथवा जैसे मिट्टी का घट बनाकर उसे शीघ्र ही फिर मिट्टी में मिला दिया जाय तो वह मिट्टी में मिलकर एकाकार हो जाता है, किन्तु यदि वही घट अग्नि में तपाया जाय तो वह मिट्टी से भिन्न रूप वाला हो जाता है, वैसे ही ये सब जितने प्राणी हैं, वे सब-के-सब हैं तो मेरे ही अंश, परन्तु प्रकृति के संयोग से वे सब जीव-दशा को प्राप्त हुए हैं। यही कारण है कि वे मेरे हैं, किन्तु ‘मैं’ नहीं हैं। वे मेरे ही हैं, परन्तु फिर भी वे मुझे नहीं पहचानते, क्योंकि अहंता, ममता और भ्रम के कारण वे विषयान्ध हो रहे हैं।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (60-67)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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