श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-7
ज्ञानविज्ञान योग
पानी में पैदा होने वाला सेवार जैसे पूरे पानी को आच्छादित कर लेता है अथवा जैसे मेघों से सम्पूर्ण आकाश ढक जाता है अथवा स्वप्न को यद्यपि असत्य कहा जा सकता है, पर फिर भी जिस समय तक नींद रहती है, उस समय तक स्वप्न जिस प्रकार सत्य प्रतीत होता है और हमें स्वयं अपनी ही स्मृति नहीं रहती अथवा नेत्र ही अपनी पुतली पर जो जाला उत्पन्न कर देता है, और वह जाला जैसे नेत्र की दृष्टि समाप्त कर देता है, वैसे ही यह त्रिगुणात्मक माया भी मेरी परछाईं है और वह मेरे आत्मस्वरूप की ओट में ही यवनिका की भाँति पड़ी हुई है। यही कारण है कि ये प्राणी मुझे पहचान नहीं सकते। वे मुझसे ही उत्पन्न हुए हैं, परन्तु यह बात नहीं है कि जो कुछ वे हैं, वह मैं ही हूँ। जल में ही उत्पन्न होने वाला मोती जैसे जल में कभी नहीं गलता अथवा जैसे मिट्टी का घट बनाकर उसे शीघ्र ही फिर मिट्टी में मिला दिया जाय तो वह मिट्टी में मिलकर एकाकार हो जाता है, किन्तु यदि वही घट अग्नि में तपाया जाय तो वह मिट्टी से भिन्न रूप वाला हो जाता है, वैसे ही ये सब जितने प्राणी हैं, वे सब-के-सब हैं तो मेरे ही अंश, परन्तु प्रकृति के संयोग से वे सब जीव-दशा को प्राप्त हुए हैं। यही कारण है कि वे मेरे हैं, किन्तु ‘मैं’ नहीं हैं। वे मेरे ही हैं, परन्तु फिर भी वे मुझे नहीं पहचानते, क्योंकि अहंता, ममता और भ्रम के कारण वे विषयान्ध हो रहे हैं।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (60-67)
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