ज्ञानेश्वरी पृ. 19

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-1
अर्जुन विषाद योग

जैसे चन्द्रकला के स्पर्श से सोमकान्त मणि पिघलने लगती है, वैसे ही दया के स्पर्श से पार्थ भी द्रवित होकर खेदयुक्त वाणी से भगवान् श्रीकृष्ण से कहने लगा[1]-

अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।॥28॥
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिश्रुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते।॥29॥
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः॥30॥

“हे देव! अब आप ध्यानपूर्वक सुनिये, यहाँ आये हुए सब लोगों को तो मैंने देख लिया। ये सब लोग तो मेरे ही कुल-गोत्र के दिखायी पड़ते हैं। ये सब युद्ध के लिए अत्यन्त उत्साहित हो गये हैं; पर मेरा भी इन्हीं की भाँति युद्ध के लिये उद्यत होना कहाँ तक उचित होगा? इन आप्त सम्बंधियों से युद्ध करने के विचार से मुझे कुछ अलग सा लग रहा है। इनके साथ मेरी अपनी ही सुध-बुध नष्ट हो गयी है। मन और बुद्धि दोनों अस्थिर होने लगे हैं। देखिये, मेरा शरीर काँप रहा है, मुख सूखने लगा है और सब गात्रों में (शरीर में) शिथिलता आ रही है। सारे शरीर में रोमांच हो आया है, अन्तःकरण में (मन में) पीड़ा हो रही है। गाण्डीव को धारण करने वाला मेरा हाथ शिथिल पड़ रहा है। वह गाण्डीव धनुष पकड़ने से पहले ही छूट गया; हाथ से कब गिर गया इसका मुझे पता ही नहीं। इस मोह ने मेरा हृदय इस तरह घेरा हुआ है। अर्जुन का अन्तःकरण वज्र से भी कठोर दूसरों से न डरने वाला, अतिशय गंभीर (साहसी) है; परन्तु इस करुणा का (कायरता का) वलय उससे ही बढ़कर। बड़़े आश्चर्य की बात है, जिसने युद्ध में शंकर जी को हार स्वीकार करने के लिये विवश किया और निवातकवच नाम के राक्षसों का समूल नाश किया, उस अर्जुन को एक क्षण में ही मोह ने घेर लिया। मधुप कठोर-से-कठोर काष्ठ को भी बड़ी ही सहजता से छेद डालता है, किन्तु एक कमल की कली में वह बन्द हो जाता है, फिर चाहे वहाँ उसके प्राण ही क्यों न चले जायँ, परन्तु उस कली को छेदने का विचार उसके मन में स्पर्श तक नहीं करता, उसी प्रकार यह स्नेह उस कली-जैसा कोमल तो है लेकिन है महाकठिन!

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (185-192)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः