ज्ञानेश्वरी पृ. 180

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-6
आत्मसंयम योग


अर्जुन उवाच
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्त: साम्येन मधुसूदन ।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम् ॥33॥
चञ्चलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥34॥

तब अर्जुन ने कहा-“हे देव! आपको मेरे हित का ही ध्यान लगा रहता है, इसीलिये आप मुझसे इतनी बातें कह रहे हैं। परन्तु इस मन के आगे हमारी एक नहीं चलती। यदि हम इस बात का विचार करना चाहें कि यह मन कैसा है और कितना बड़ा है तो इसकी थाह ही नहीं लगती। साधारणतया इसके विचरण करने के लिये यह तीनों लोक भी छोटा है। फिर ऐसे मन को किस प्रकार से रोका जाय? क्या बन्दर को कभी समाधि मिल सकती है? यदि महावायु को स्थिर रहने के लिये कहा जाय तो क्या वह कभी शान्त और स्थिर हो सकती है? जो मन बुद्धि को भी धोखा देता है, निश्चय को भी अस्थिर कर देता है, धैर्य से हाथ मिलाकर भी भाग खड़ा होता है, विवेक को भी भ्रमित कर देता है, संतोष में भी वासना का कलंक लगा देता है, जो उस समय भी दसों दिशाओं को कँपा देता है, जिस समय हम स्वस्थ होकर बैठना चाहते हैं, जो निरोध करने पर बड़े जोर से भड़कता है, संयम की चेष्टा करने पर भी जिसका आवेश और भी तीव्र हो जाता है, भला वह मन अपना चपल स्वभाव कैसे त्यागेगा? इसीलिये मुझे तो प्रायः ऐसा ही भान होता है कि मेरा मन कभी न निश्चय होगा और न मैं कभी साम्यावस्था तक ही पहुँच सकूँगा।”[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (411-417)

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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