श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-6
आत्मसंयम योग
तब अर्जुन ने कहा-“हे देव! आपको मेरे हित का ही ध्यान लगा रहता है, इसीलिये आप मुझसे इतनी बातें कह रहे हैं। परन्तु इस मन के आगे हमारी एक नहीं चलती। यदि हम इस बात का विचार करना चाहें कि यह मन कैसा है और कितना बड़ा है तो इसकी थाह ही नहीं लगती। साधारणतया इसके विचरण करने के लिये यह तीनों लोक भी छोटा है। फिर ऐसे मन को किस प्रकार से रोका जाय? क्या बन्दर को कभी समाधि मिल सकती है? यदि महावायु को स्थिर रहने के लिये कहा जाय तो क्या वह कभी शान्त और स्थिर हो सकती है? जो मन बुद्धि को भी धोखा देता है, निश्चय को भी अस्थिर कर देता है, धैर्य से हाथ मिलाकर भी भाग खड़ा होता है, विवेक को भी भ्रमित कर देता है, संतोष में भी वासना का कलंक लगा देता है, जो उस समय भी दसों दिशाओं को कँपा देता है, जिस समय हम स्वस्थ होकर बैठना चाहते हैं, जो निरोध करने पर बड़े जोर से भड़कता है, संयम की चेष्टा करने पर भी जिसका आवेश और भी तीव्र हो जाता है, भला वह मन अपना चपल स्वभाव कैसे त्यागेगा? इसीलिये मुझे तो प्रायः ऐसा ही भान होता है कि मेरा मन कभी न निश्चय होगा और न मैं कभी साम्यावस्था तक ही पहुँच सकूँगा।”[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (411-417)
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