ज्ञानेश्वरी पृ. 18

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-1
अर्जुन विषाद योग

भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्।
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरुनिति॥25॥
तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थः पितॄनथ पितामहान्।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातॄन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा॥26॥
श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान्॥27॥

जिस जगह आप्त सम्बन्धी (निकट के नाते-सम्बन्ध) पितामह भीष्म और द्रोणाचार्य आदि अन्य अनेक राजा भी थे। उसी जगह पर रथ रुकवाकर अर्जुन उत्कण्ठापूर्वक उस सेना को देखने लगा। तत्पश्चात् उसने कहा-“हे देव! जरा देखिये, ये सब तो मेरे ही कुलगोत्र के तथा गुरुजन हैं।” अर्जुन की यह बात सुनकर भगवान् को क्षणमात्र के लिये कुछ विस्मय हुआ, फिर उन्होंने मन-ही-मन विचार किया-“पता नहीं इस समय इसके मन में कौन-सा भाव उमड़ पड़ा है, पर कुछ-न-कुछ भाव तो आया अवश्य है।” अब वे मन-ही-मन भावी विचारों में डूब गये। उसी समय भगवान् को तो सब बातें मालूम हो गयीं पर उस समय वे मौन ही रहे। उधर अर्जुन को अपने समक्ष अपने ही सगे-सम्बन्धी, इष्ट-मित्र, कुल के ही भाई-बन्धु, गुरुजन, पितामह, आचार्य और मामा आदि दिखायी पड़े। अर्जुन को उस समूह में परम प्रिय स्नेही ससुराल वाले, दूसरे नाती-पोते आदि भी दिखायी दिये। वहाँ केवल ऐसे ही लोग नहीं थे जिनका उसने उपकार किया था अथवा अर्जुन ने जिनको समय-समय पर अनेक विपत्तियों से उबारा था, वरन् छोटे-बड़े सभी सगे-सम्बन्धी वहाँ आये हुए थे। इस प्रकार दोनों दलों में उसे युद्ध के लिये उद्यत अपने ही कुलगोत्र के भाई-बन्धुओं को देखा।”[1]

कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।

इस प्रसंग में अर्जुन का मन खिन्न हो गया और उसके कारण उसके मन में गहन करुणा उत्पन्न हो गयी, जिससे अर्जुन के शरीर में जो वीरवृत्ति थी वो निकल गयी। जो स्त्रियाँ उच्च कुल में होती हैं, गुण और रूप से सम्पन्न होती हैं उनको अपने सौन्दर्य के कारण अन्य स्त्री का वर्चस्व सहन नहीं होता। जिस प्रकार किसी नयी-नवेली के चक्कर में पड़कर कामी व्यक्ति अपनी पत्नी को भूल जाता है और तब भ्रमिष्टों की भाँति बिना विचारे ही उसकी योग्यता न देखते हुए अनैतिक कार्य करने लगता है अथवा जैसे तपस्या से अभीष्ट ऐश्वर्य मिल जाने पर बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है और तब मनुष्य को वैराग्य के साधन का ध्यान नहीं रह जाता, ठीक वैसी ही दशा उस समय अर्जुन की भी हुई थी कारण उसकी जो वीरवृत्ति थी वो निकल गयी थी क्योंकि उसने अपना अन्तःकरण करुणा को अर्पित किया था। जिस तरह कोई मन्त्रविद् मन्त्रोच्चारण करने में भूल गया तो, जैसे उसे बाधा (तकलीफ) होती है, उसी प्रकार वह धनुर्धारी अर्जुन महामोह से ग्रस्त (व्याप्त) हो गया। इसीलिये अर्जुन का स्वाभाविक धैर्य चला गया तथा उसका हृदय पिघलने लगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (175-184)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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