श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-6
आत्मसंयम योग
हे किरीटी! जो व्यक्ति ऐक्य दृष्टि से मुझे सारे जीवों में वैसे ही बिल्कुल मिला हुआ जानता है, जैसे वस्त्र में तन्तु होते हैं अथवा जिसकी सोच उसी न्याय से एकात्मता की दृष्टि से स्थिर हो गयी है, जिस न्याय से अलंकार बहुत-से रूपों वाले होने पर भी उन सबका आधार स्वर्ण एक रूप ही होता है, अथवा जिसकी अज्ञान-निशा इस प्रकार के अद्वैतभाव सूर्योदय से नष्ट हो गयी है कि वृक्ष के जितने पत्ते दृष्टिगोचर होते हैं, वे सब पृथक्-पृथक् लगाये हुए नहीं हैं और वृक्ष में पत्ते भले ही बहुत-से दृष्टिगोचर हों, पर मूल वृक्ष एक ही होता है, ऐसा व्यक्ति यदि पंचमहाभूतात्मक शरीर में आबद्ध हो जाय तो भी वह उसी शरीर में बँधा कैसे रह सकता है? वह तो अनुभव के द्वारा मेरे ही समकक्ष का हो जाता है। वह अपने अनुभव के बल पर वही व्यापकता प्राप्त कर लेता है जो मेरे अन्दर विद्यमान है और चाहे मैंने यह बात बतलायी हो अथवा न बतलायी हो, पर फिर भी वह स्वभावतः ही व्यापक हो जाता है। अब यदि वह शरीरी भी हो तो भी उसे शरीर-सम्बन्धी अभिमान नहीं होता और यह बात यदि शब्दों के द्वारा साफ-साफ व्यक्त की जा सकती तो अवश्य ही व्यक्त की जाती।[1]
परन्तु इस विषय का विस्तार करने की आवश्यकता नहीं। जो चराचर जगत् को अपने ही सदृश देखता और समझता है, जिसके मन में सुख-दुःखादि की भावनाएँ अथवा शुभाशुभ कर्मों के विषय में कोई भेदभाव नहीं होता, जो सम-विषम तथा विचित्र हर तरह की चीजों को स्वयं अपने ही अवयवों की भाँति मानता है, यहाँ तक कि जिसकी बुद्धि से त्रिभुवन ही आत्मस्वरूप दिखलायी पड़ते हैं, उस व्यक्ति का भी शरीर होता ही है तथा लोकाचार में प्रसंगानुसार उसे सुखी-दुःखी कहा जाता है। परन्तु मेरा अनुभव यह है कि ऐसा व्यक्ति वास्तव में ब्रह्मस्वरूप ही होता है। इसीलिये हे पाण्डव! हमें स्वयं में इस प्रकार के साम्य की स्थापना करनी चाहिये कि स्वयं में ही सारा विश्व दृष्टिगोचर हो और हम स्वयं ही विश्वरूप हो जायँ। यह बात जो मैं तुमसे बार-बार कह रहा हूँ, उसका मतलब यह है कि इस संसार में इस साम्य से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु प्राप्तव्य नहीं हैं।”[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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