श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-6
आत्मसंयम योग
इस सुगम योगस्थिति से अनेक लोगों ने संकल्प की सम्पत्ति का परित्याग कर मोक्ष का साक्षात्कार किया है। जिस समय मन सुख के साथ परब्रह्म के भीतर जा पहुँचता है, उस समय वह उसे वैसे ही नहीं त्यागता, जैसे जल में मिला हुआ लवण जल को नहीं त्यागता और मन भी उस भेंट में समरसत्त्व के मन्दिर में संसार के साथ महासुख की दीवाली मनाता रहता है। इस प्रकार व्यक्ति को अपने ही पैरों से उलटे (मूलस्वरूप की ओर) चलते रहना चाहिये। हे पार्थ! यदि यह मार्ग भी तुमसे न सध सके तो तुम एक और उपाय सुनो।[1]
इस तत्त्व के सम्बन्ध में जरा-सा भी संदेह नहीं है कि मैं ही सारे शरीर में रहता हूँ और इसी प्रकार यह भी सिद्ध है कि यह सारा जगत् मुझमें ही है। प्रत्येक मनुष्य को यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिये कि सारा जगत् और हम एकदम एक हैं और परस्पर मिले हुए हैं। हे अर्जुन! सच्ची बात तो यह है कि जो व्यक्ति एकता की भावना से मुझे ही जीवमात्र में समान रूप से मिला हुआ जानकर मुझे भजता है, जीवमात्र में बाह्यरूप से दृष्टिगोचर होने वाले भेद के कारण जिनके मन में किसी प्रकार का भेदभाव हो ही नहीं सकता और जो सर्वत्र केवल मेरा ही स्वरूप देखता है, वह व्यक्ति इस प्रकार की उक्ति को एकदम व्यर्थ साबित कर देता है कि-‘यही मैं हूँ।’ और हे धनंजय! चाहे मैंने यह बात न कही हो, पर फिर भी ऐसा पुरुष मैं ही हूँ। दीपक और उसके प्रकाश में जैसी एकता की स्थिति होती है, ठीक वैसी ही स्थिति मेरी और उसकी है। ऐसा व्यक्ति मुझमें ही रहता है और मैं भी ऐसे ही व्यक्ति में रहता हूँ। जैसे उदक के अस्तित्व के कारण रस का अस्तित्व रहता है अथवा गगन के परिमाण के अनुसार ही अवकाश रहता है, वैसे ही वह व्यक्ति भी मेरे ही रूप से रूप धारण करता है अर्थात् साकार रहता है।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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