ज्ञानेश्वरी पृ. 178

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-6
आत्मसंयम योग


युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मष: ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥28॥

इस सुगम योगस्थिति से अनेक लोगों ने संकल्प की सम्पत्ति का परित्याग कर मोक्ष का साक्षात्कार किया है। जिस समय मन सुख के साथ परब्रह्म के भीतर जा पहुँचता है, उस समय वह उसे वैसे ही नहीं त्यागता, जैसे जल में मिला हुआ लवण जल को नहीं त्यागता और मन भी उस भेंट में समरसत्त्व के मन्दिर में संसार के साथ महासुख की दीवाली मनाता रहता है। इस प्रकार व्यक्ति को अपने ही पैरों से उलटे (मूलस्वरूप की ओर) चलते रहना चाहिये। हे पार्थ! यदि यह मार्ग भी तुमसे न सध सके तो तुम एक और उपाय सुनो।[1]


सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूता न चात्मनि ।
इक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन: ॥29॥
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च में न प्रणश्यति ॥30॥

इस तत्त्व के सम्बन्ध में जरा-सा भी संदेह नहीं है कि मैं ही सारे शरीर में रहता हूँ और इसी प्रकार यह भी सिद्ध है कि यह सारा जगत् मुझमें ही है। प्रत्येक मनुष्य को यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिये कि सारा जगत् और हम एकदम एक हैं और परस्पर मिले हुए हैं। हे अर्जुन! सच्ची बात तो यह है कि जो व्यक्ति एकता की भावना से मुझे ही जीवमात्र में समान रूप से मिला हुआ जानकर मुझे भजता है, जीवमात्र में बाह्यरूप से दृष्टिगोचर होने वाले भेद के कारण जिनके मन में किसी प्रकार का भेदभाव हो ही नहीं सकता और जो सर्वत्र केवल मेरा ही स्वरूप देखता है, वह व्यक्ति इस प्रकार की उक्ति को एकदम व्यर्थ साबित कर देता है कि-‘यही मैं हूँ।’ और हे धनंजय! चाहे मैंने यह बात न कही हो, पर फिर भी ऐसा पुरुष मैं ही हूँ। दीपक और उसके प्रकाश में जैसी एकता की स्थिति होती है, ठीक वैसी ही स्थिति मेरी और उसकी है। ऐसा व्यक्ति मुझमें ही रहता है और मैं भी ऐसे ही व्यक्ति में रहता हूँ। जैसे उदक के अस्तित्व के कारण रस का अस्तित्व रहता है अथवा गगन के परिमाण के अनुसार ही अवकाश रहता है, वैसे ही वह व्यक्ति भी मेरे ही रूप से रूप धारण करता है अर्थात् साकार रहता है।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (387-390)
  2. (391-397)

संबंधित लेख

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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