ज्ञानेश्वरी पृ. 177

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-6
आत्मसंयम योग


शनै: शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया ।
आत्मसंस्थं मन: कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् ॥25॥
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥26॥

यदि बुद्धि को धैर्य का आश्रय मिल जाय तो वह मन को अनुभव के मार्ग से धीरे-धीरे ले जाकर ब्रह्मस्वरूप में स्थापित कर देगी। इसलिये तुम यह बात ध्यान में रखो कि आत्म प्राप्ति का यह भी एक मार्ग है। परन्तु यदि यह मार्ग तुम्हारे लिये कठिन हो तो इससे भी एक और सुगम मार्ग है, वह भी जान लो। हम अपने मन में एक ऐसा दृढ़ निश्चय कर लें कि हम जो निश्चय कर लें, उससे जरा-सा भी टस-से-मस न होंगे। यदि इतने से ही चित्त स्थिर हो जाय तो फिर जान लेना चाहिये कि सहज ही कार्य हो गया। पर यदि यह ज्ञात हो जाय कि इस प्रकार मन स्थिर नहीं रहता तो फिर उसे एकदम उन्मुक्त कर देना चाहियें। फिर इस प्रकार से उन्मुक्त मन जहाँ पर जाय, वहाँ से उसे प्रतिबन्धित करके वापस ले आना चाहिये। बस, इसी तरह से चित्त को धीरे-धीरे स्थिरता का अभ्यास हो जायगा।[1]


प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् ।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ॥27॥

इसके बाद किसी-न-किसी समय एक बार उसी स्थिरता के सहयोग से चित्त सहज ही आत्मस्वरूप के निकट जा पहुँचेगा और फिर उसे देखकर उससे मिल जायगा। उस समय अद्वैत में द्वैत डूब जायगा और उस एकता के प्रभाव से त्रिलोकी प्रकाशित हो जायगी। आकाश में आकाश से भी भिन्न जान पड़ने वाला मेघ दृष्टिगोचर होता है, परन्तु उस मेघ के हट जाने पर जैसे सिर्फ सर्वव्यापी आकाश ही शेष रहता है, वैसे ही चित्त का भी लय हो जाता है और सब कुछ चैतन्य के ही रूप में दृष्टिगोचर होने लगता है। इस सहज मार्ग से इस प्रकार की फल-प्राप्ति होती है।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (378-382)
  2. (383-386)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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