श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-6
आत्मसंयम योग
जिस सुख की मधुरता का आस्वादन कर लेने पर सांसारिक बन्धनों में जकड़ा हुआ मन वासनाओं को भी याद ही नहीं करता, जो सुखयोग की शोभा और संतोष की राज सम्पत्ति है तथा जिस सुख के लिये ही ज्ञान का ज्ञातृत्व काम आता है, वह सुख योगाभ्याय के द्वारा मूर्तिमान् होकर दृष्टिगोचर होने लगता है। अब इस प्रकार उसके दर्शन हो जायँ, तभी हम भी उसके साथ मिलकर तद्रूप हो सकेंगे।[1]
हे पार्थ! जो यह योग तुम्हें अत्यन्त दुष्कर मालूम पड़ता है, यह वास्तव में बहुत ही सुगम है। इसके लिये आवश्यकता केवल इसी बात की है कि संकल्प की सन्तान काम-क्रोधादि का नाश कर डालना चाहिये। जिसमें उस संकल्प को पुत्र-शोक मिला हो। जिस समय संकल्प को यह ज्ञात होगा कि सारे विषय नष्ट हो गये हैं और उसे यह भी मालूम पड़ जायगा कि इन्द्रियों का बिल्कुल निग्रह हो गया है‚ उस समय वह अपना हृदय फाड़कर स्वयं ही अपने जीवन का नाश कर देगा। यदि मन को इस प्रकार का वैराग्य मिल जाय तो फिर इस संकल्प का आवागमन ही बन्द हो जायगा और बुद्धि धैर्य के मन्दिर में सुखपूर्वक निवास करने लगेगी।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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