ज्ञानेश्वरी पृ. 176

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-6
आत्मसंयम योग


तं विद्याद् दु:खसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् ।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ॥23॥

जिस सुख की मधुरता का आस्वादन कर लेने पर सांसारिक बन्धनों में जकड़ा हुआ मन वासनाओं को भी याद ही नहीं करता, जो सुखयोग की शोभा और संतोष की राज सम्पत्ति है तथा जिस सुख के लिये ही ज्ञान का ज्ञातृत्व काम आता है, वह सुख योगाभ्याय के द्वारा मूर्तिमान् होकर दृष्टिगोचर होने लगता है। अब इस प्रकार उसके दर्शन हो जायँ, तभी हम भी उसके साथ मिलकर तद्रूप हो सकेंगे।[1]


संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषत: ।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्तत: ॥24॥

हे पार्थ! जो यह योग तुम्हें अत्यन्त दुष्कर मालूम पड़ता है, यह वास्तव में बहुत ही सुगम है। इसके लिये आवश्यकता केवल इसी बात की है कि संकल्प की सन्तान काम-क्रोधादि का नाश कर डालना चाहिये। जिसमें उस संकल्प को पुत्र-शोक मिला हो। जिस समय संकल्प को यह ज्ञात होगा कि सारे विषय नष्ट हो गये हैं और उसे यह भी मालूम पड़ जायगा कि इन्द्रियों का बिल्कुल निग्रह हो गया है‚ उस समय वह अपना हृदय फाड़कर स्वयं ही अपने जीवन का नाश कर देगा। यदि मन को इस प्रकार का वैराग्य मिल जाय तो फिर इस संकल्प का आवागमन ही बन्द हो जायगा और बुद्धि धैर्य के मन्दिर में सुखपूर्वक निवास करने लगेगी।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (372-374)
  2. (375-377)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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