श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-6
आत्मसंयम योग
जो रसनेन्द्रिय के अधीन हो गया हो अथवा जो जीव निद्रा के हाथों बिक गया हो, वह किसी समय इस साधना का अधिकारी नहीं कहा जा सकता अथवा जो हठ के बन्धन में क्षुधा और तृषा को बाँध करके, आहार को मारकर अपना शरीर तोड़ डालता है अथवा इसी प्रकार हठ के कारण निद्रा के रास्ते भी नहीं जाता और इस प्रकार हठ के साथ सब काम करता है, उसका स्वयं शरीर ही उसके वशीभूत नहीं होता। फिर भला ऐसे व्यक्ति से योग की साधना कैसे हो सकती है? इसीलिये जिस प्रकार विषयों का अतिशय सेवन नहीं करना चाहिये, उसी प्रकार उनके साथ वैर-भाव भी नहीं करना चाहिये और उन्हें बलपूर्वक पूरी तरह से दबाकर भी नहीं रखना चाहिये।[1]
आहार का सेवन करना चाहिये, पर वह उचित और परिमित हो। सारे कर्मों का आचरण भी उसी रीति से होना चाहिये। परिमित शब्द बोलने चाहिये; अच्छी तरह से चलना चाहिये और यथासमय निद्रा भी लेनी चाहिये। जागने की क्रिया भी नियमित होनी चाहिये। ऐसा करने से शरीर के कफ आदि धातु उचित मात्रा में रहते हैं और सुख होता है। इस प्रकार यदि नियमबद्ध तरीके से इन्द्रियों को उनके विषयों का भोज्य पदार्थ दिया जाय तो मन में सन्तोष की वृद्धि होती है।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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