ज्ञानेश्वरी पृ. 17

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-1
अर्जुन विषाद योग

यावदेतान्निरिक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे॥22॥
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्‌धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः॥23॥

जब तक इन सब युद्ध के लिये आये हुए शूर सैनिकों को मैं अच्छी तरह से देख न लूँ (तब तक रथ को खड़ा कर लेना)। यहाँ सब आये हुए हैं; परंतु इस रणांगण में मुझे किसके साथ लड़ना है, इसका विचार करना जरूरी है। ये कौरव तो बड़े ही जड़बुद्धि एवं बुरे स्वभाव के हैं। अत: सम्भव है कि पराक्रम के बिना भी ये लोग यहाँ युद्ध की अभिलाषा लिये हुए पहुँच आये हों। कौरवों को युद्ध करने की इच्छा तो बहुत है, पर युद्ध के लिये इन लोगों में अपेक्षित धैर्य का सर्वथा अभाव ही है।” महाराज धृतराष्ट्र को अर्जुन की यह बात बताकर संजय ने आगे कहा[1]-

संजय उवाच
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्॥24॥

“हे राजन्! सुनिये; ज्यों ही अर्जुन ने ये बातें कहीं त्यों ही श्रीकृष्ण ने रथ को आगे बढ़ा दिया और ले जाकर सेनाओं के मध्य में खड़ा कर दिया।”[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (170-173)
  2. (174)

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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