श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-6
आत्मसंयम योग
हे पार्थ! मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनो। जब शक्ति के तेज का लोप हो जाता है, तब देह का रूप भी मिट जाता है और उस समय वह योगी सांसारिक लोगों की दृष्टि में अपने वास्तविक स्वरूप में दृष्टिगोचर नहीं होता। सामान्यतः उसका बाह्यस्वरूप तो पहले की ही भाँति अवयव सम्पन्न शरीरधारी ही दीखता है, पर यथार्थतः उसका वह शरीर मानो वायुनिर्मित ही होता है अथवा जैसे अपना छिलका उतारकर कदली का गाभा खड़ा रहता है या स्वयं आकाश में ही उसका कोई अवयव प्रकट होता है, वैसे ही वह योगी भी उस समय हो जाता है। जब योगी का शरीर ऐसा हो जाता है, तब उसे खेचर (गगन विहारी) कहते हैं। जब योगी को इस प्रकार की योग्यता मिल जाती है, तब उसका शरीर संसार में एक बहुत बड़ा चमत्कार कर दिखलाता है। हे पार्थ! योगी जिस समय चलता है, उस समय अणिमादिक सिद्धियाँ उस योगी के चरणों में सिर झुकाये खड़ी रहती हैं। पर हे धनंजय! इन सिद्धियों से हमें क्या लेना-देना है? तुम अच्छी तरह से जान लो कि योगियों के शरीर में ही पृथ्वी, जल और तेज-इन तीनों महाभूतों का लोप हुआ रहता है। पृथ्वी-तत्त्व जल में मिल जाता है, जल-तत्त्व तेज में चला जाता है और तेज-तत्त्व हृदय के पवन में समा जाता है, फिर अन्त में केवल पवन ही शेष रह जाता है और वह भी केवल शरीर के रूप में ही रहता है। फिर कुछ काल के बाद वह भी आकाश में जा मिलता है। उस समय उसे कुण्डलिनी नाम के बदले वायु (मारुति) नामक नया नाम मिल जाता है, परन्तु जब तक वह कुण्डलिनी ब्रह्मस्वरूप में नहीं जा मिलती, तब तक उसकी शक्ति बनी ही रहती है। फिर वह जालन्धर नामक बन्ध का परित्याग कर और काकमुखी सुषुम्ना नाड़ी का मुँह फोड़कर ब्रह्मरन्ध्र में जा पहुँचती है। फिर वह ओंकार की पीठ पर पैर रखकर शीघ्रातिशीघ्र पश्यन्ती-वाचा की सीढ़ी पार कर जाती है। फिर वह ओंकार की अर्धमात्रा तक ठीक वैसे ही ब्रह्मरन्ध्र में प्रवेश करती है, जैसे समुद्र में नदी जाकर समा जाती है। फिर वह ब्रह्मरन्ध्र में स्थिर रहकर ‘सोऽहम्’ भाव की बाहें फैलाकर बड़े वेग से दौड़ती हुई परब्रह्म से जा मिलती है। उस समय पंचमहाभूतों का परदा जाकर दूर खड़ा हो जाता है और तब वह शक्ति परब्रह्म का आलिंगन करने लगती है तथा आकाश के साथ उस परब्रह्म में एक जीव होकर लीन हो जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |