श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-6
आत्मसंयम योग
जब उस अनाहतरूपी मेघनाद से हृदय रूपी आकाश गूँज उठता है, तब ब्रह्मरन्ध्र की खिड़की स्वतः खुल जाती है। हे पार्थ! हृदयरूपी आकाश के ऊपर जो महदाकाश होता है, उसी में चैतन्य बिना आधार का निवास करता है, ज्यों ही उस हृदयरूपी घर में कुण्डलिनी परमेश्वरी का प्रवेश होता है, त्यों ही वह अपना तेज उस चैतन्य के समक्ष भोजन के रूप में अर्पित करती है। ज्यों ही बुद्धिरूपी शाक का इस भोजन के साथ नैवेद्य लगता है, त्यों ही फिर द्वैत का कहीं नामोनिशान भी नहीं रह जाता। फिर कुण्डलिनी अपना तेज छोड़कर प्राणवायु का स्वरूप प्राप्त कर लेती है। यदि तुम यह प्रश्न करो कि उस समय उसका स्वरूप किस प्रकार का हो जाता है तो मैं बतलाता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो। ऐसा मालूम पड़ता है कि अब तक वायु की यह पुतली स्वर्णिम पीत वस्त्र धारण किये हुए थी, परन्तु अब वह अपना पीत वस्त्र फेंककर निर्वस्त्र हो गयी है अथवा प्रतीत होता है कि किसी दीपक की ज्योति वायु से टकराकर बुझ गयी है अथवा जैसे बिजली आकाश में एक बार चमककर फिर छिप जाती है, वैसे ही हृदयकमल तक स्वर्णशलाका की भाँति दिखायी देने वाली या प्रकाश स्त्रोत की भाँति प्रवहमान वह कुण्डलिनी हृदय प्रदेश की दरी में अकस्मात् प्रवेश कर जाती है और सद्यः शक्ति का शक्ति में लय हो जाता है। ऐसी स्थिति में हम उसे भले ही शक्ति कहकर पुकारें, पर यदि तत्त्वतः विचार किया जाय तो वह प्राणवायु ही होती है। फर्क सिर्फ यही है कि उसका नाद, कान्ति और तेज दृष्टिगोचर नहीं होता। फिर उस दशा में मन को वश में करने, वायु को रोकने अथवा ध्यान लगाने की भी कोई जरूरत नहीं रह जाती। उस समय मन में संकल्प-विकल्प उठने का कोई प्रश्न ही नहीं। वास्तव में इस अवस्था को पंचमहाभूतों को बिल्कुल विनष्ट करने वाली ही जानना चाहिए।” इस प्रकार योग के द्वारा पिण्ड-से-पिण्ड का ग्रसन नाथ-सम्प्रदाय का मूल रहस्य है; यहाँ इसी अभिप्राय का संकेत श्रीमहाविष्णु ने किया है। यहाँ एक-से-एक गुणों के ग्राहक हैं, जो कथा सुनने के लिये पूर्ण मनोयोग से बैठे हुए हैं, यही कारण है कि श्रीकृष्ण की ध्वनितार्थ वाली गठरी को छोड़कर मैंने यथार्थरूपी वस्त्र की गठरी खोलकर सारे लोगों के आगे रख दी है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (211-292)
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