श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-6
आत्मसंयम योग
इस संसार-सम्बन्धी भावना का विचार करने पर जब यह तय हो जाता है कि यह भावना मिथ्या है, तब और अधिक विचार करने पर यह ज्ञात होता है कि वह ज्ञान आत्मस्वरूप ही है। जिस समय ऐसा हो जाता है, उस समय द्वैतभाव के विनष्ट हो जाने के कारण इस प्रकार का ऊहापोह स्वतः जहाँ-का-तहाँ समाप्त हो जाता है कि यह आत्मतत्त्व व्यापक है अथवा एकदेशी। इस प्रकार जो अपने इन्द्रियों को जीत लेता है, वह शरीर के रहने पर भी परब्रह्म के समकक्ष जा पहुँचता है। वही वास्तविक जितेन्द्रिय होता है और उसी को योगी भी कहना चाहिये; क्योंकि वह छोटे और बड़े में भेद नहीं करता और मेरुपर्वत जैसा विशाल सोने के ढेर को तथा मिट्टी के ढेले को एक समान ही समझता है। वह इतना निरिच्छ (इच्छारहित) रहता है कि समस्त पृथ्वी के मूल्य को अथवा अनमोल रत्न को भी पत्थर के समान समझता है।(88-93) |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |