ज्ञानेश्वरी पृ. 152

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-6
आत्मसंयम योग


ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रिय: ।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चन: ॥8॥

इस संसार-सम्बन्धी भावना का विचार करने पर जब यह तय हो जाता है कि यह भावना मिथ्या है, तब और अधिक विचार करने पर यह ज्ञात होता है कि वह ज्ञान आत्मस्वरूप ही है। जिस समय ऐसा हो जाता है, उस समय द्वैतभाव के विनष्ट हो जाने के कारण इस प्रकार का ऊहापोह स्वतः जहाँ-का-तहाँ समाप्त हो जाता है कि यह आत्मतत्त्व व्यापक है अथवा एकदेशी। इस प्रकार जो अपने इन्द्रियों को जीत लेता है, वह शरीर के रहने पर भी परब्रह्म के समकक्ष जा पहुँचता है। वही वास्तविक जितेन्द्रिय होता है और उसी को योगी भी कहना चाहिये; क्योंकि वह छोटे और बड़े में भेद नहीं करता और मेरुपर्वत जैसा विशाल सोने के ढेर को तथा मिट्टी के ढेले को एक समान ही समझता है। वह इतना निरिच्छ (इच्छारहित) रहता है कि समस्त पृथ्वी के मूल्य को अथवा अनमोल रत्न को भी पत्थर के समान समझता है।(88-93)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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