श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-1
अर्जुन विषाद योग
काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः। उस समय युद्धभूमि में राजा द्रुपद, द्रौपदी के पाँचों पुत्र, महाबाहु काशिराज, अर्जुन पुत्र अभिमन्यु, अजेय सात्यकि, धृष्टद्युम्न, शिखण्डी और विराट इत्यादि बहुत-से राजा उपस्थित थे। उनमें जो प्रधान-प्रधान वीर सेनापति थे, उन सबने नाना प्रकार से शंख लगातार बजाने की शुरुआत की। उस शंखनाद को सुनकर पृथ्वी को धारण करने वाले शेषनाग एवं महाकूर्म भी इतने व्याकुल हो गये कि वे अपने सिर से भू-भार फेंकने के लिये तत्पर हो उठे। उस समय त्रिभुवन डाँवाँडोल होने लगे। मेरु तथा मन्दर आदि पर्वत आगे-पीछे डोलने लगे। और-तो-और समुद्र की लहरें भी कैलास की ऊँचाई को छूने लगीं। भूतल उलट-पलट होगा, ऐसा लगने लगा। आकाश को झटके लगने लगे उसके कारण नक्षत्र नीचे गिर रहे हैं ऐसा लगने लगा। इतना ही नहीं, सत्यलोक में भी शोर मच गया कि अब यह सृष्टि ही समाप्त हो गयी और देवताओं का आश्रय जाता रहा। दिन होने के बावजूद ऐसा लगता था कि मानो सूर्य रुक गया। इस प्रकार तीनों लोकों में इतना हाहाकार मच गया कि मानो प्रलयकाल ही आ धमका हो। उस समय यह देखकर आदिपुरुष को भी यह आशंका सताने लगी कि वास्तव में कहीं इस विश्व का अन्त ही न हो जाय। इसलिये आदि नारायण ने उस कोलाहल को शान्त किया, जिससे यह सृष्टि बच गयी। अन्यथा जिस समय कृष्णादि ने अपने दिव्य शंख बजाये, उस समय प्रलयकाल होने की वेला आयी थी। यद्यपि वह ध्वनि बन्द हो गयी थी, पर फिर भी उसकी प्रतिध्वनि अभी तक गूँज ही रही थी और ऐसा प्रतीत हुआ मानो उस प्रतिध्वनि ने ही कौरवों की सेना का विध्वंस कर डाला। वह प्रतिध्वनि भी उसी प्रकार शूरवीरों का हृदय चीरती हुई सर्वत्र फैलने लगी, जिस प्रकार हाथियों के समूह में सिंह स्वाभाविक रूप से विचरण करते हुए उस समूह को तितर-बितर कर देता है। उस प्रतिध्वनि की गर्जना सुनकर खड़े-खड़े ही उन लोगों के धैर्य छूट गये और वे एक-दूसरे को सावधान करने लगे।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (151-163)
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