श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-6
आत्मसंयम योग
यदि श्रोताओं में इस तरह की सूक्ष्मदर्शिता आ जायगी तभी यह श्रवण सार्थक होगा और नहीं तो फिर इस निरूपण को केवल मूक-बधिर की कथा ही कहनी पड़ेगी। अब यह वर्णन यहीं बन्द होना चाहिये; क्योंकि मेरे जो श्रोतागण हैं, उन्हें इतना सावधान करने की कोई आवश्यकता नहीं है, कारण कि यहाँ जितने श्रोता हैं, वे सब कामनारहित होने के कारण इस श्रवण के स्वभावतः ही अधिकारी हैं अर्थात् यहाँ निष्काम अंतःकरण के लोग ही अधिकारी हैं। जिन्होंने आत्मज्ञान के प्रति लगाव होने के कारण सारे सांसारिक सुखों को अपने पास से दूर भगा दिया है, उनके अलावा अन्य लोगों को इस विषय के माधुर्य का परिज्ञान ही नहीं हो सकता। जैसे कौए चन्द्रमा को नहीं पहचान सकते, वैसे ही सामान्यजनों को (विषयासक्त लोगों को) इस ग्रन्थ की महिमा का ज्ञान नहीं हो सकता और जैसे केवल चकोर ही चन्द्रिका का सेवन कर सकते हैं, अर्थात् शीतल चन्द्रकिरण ही चकोर का आहार है। वैसे ही एकमात्र ज्ञानियों को ही इस ग्रन्थ में आश्रय प्राप्त होगा अर्थात् यह ज्ञान-सम्पन्न का विषय है और अज्ञानियों के पहचान का यह विषय नहीं है। इसीलिये इसके सम्बन्ध में मुझे कुछ और कहने की जरूरत नहीं है। पर फिर भी प्रसंगानुसार मैंने बोल दिया है, उसके लिये साधु श्रोताजन बुरा न मानें। सन्तों से क्षमा माँगना उचित है। अब श्रीकृष्ण ने अर्जुन से जो कुछ कहा वह कहता हूँ। श्रीकृष्ण का वह सम्भाषण बुद्धि के भी समझ में आना अत्यन्त कठिन है; फिर भी शब्दों के द्वारा उन्हें अभिव्यक्त करना कदाचित् सम्भव है, पर फिर भी सद्गुरु श्रीनिवृत्तिनाथ के कृपारूपी प्रकाश से मुझे उसका सम्यक् बोध हो जायगा। यदि अतीन्द्रिय ज्ञान का बल हो तो दृष्टि के द्वारा दिखायी न पड़ने वाली वस्तु भी दीखने लगती है। जो सुवर्ण-सोना चाँदी बनाने की विद्या जानने वाले को भी प्राप्त नहीं होता, वह सुवर्ण दैवयोग से पारस हाथ आ जाने पर लोहे में ही मिल जाता है। इसी प्रकार यदि सद्गुरु की कृपा मिल जा, तो फिर प्रयत्न करने के बाद कौन-सी चीज असाध्य हो सकती है? इसलिये मैं ज्ञानदेव कहता हूँ कि वह असीम कृपा मुझ पर है। इसीलिये में निरूपण करूँगा, अमूर्त में भी मूर्त का संचार करूँगा और जो चीज इन्द्रियों की पकड़ से दूर है उसका भी इन्द्रियों के द्वारा ही अनुभव करा दूँगा। सुनो; अब जिन श्रीकृष्ण में यश, श्री, औदार्य, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य-इन छः गुणों का निवास है और इसीलिये जिन्हें लोग भगवन्त कहकर पुकारते हैं तथा जो नित्य-निरन्तर निःसंगों के सँघाती हैं, उन श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा-“हे पार्थ! अब तुम दत्तचित्त होकर सुनो।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (1-38)
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