ज्ञानेश्वरी पृ. 145

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-6
आत्मसंयम योग

मैं देशी (मराठी) भाषा के शब्दों की योजना करता हूँ, किन्तु वह योजना ऐसी मधुर होगी कि अपनी मधुरता के कारण अमृत को भी सहज में पराभूत कर देगी। यदि इन शब्दों की तुलना कोमलता के साथ की जाय तो इसके समक्ष संगीत के स्वरों की कोमलता भी नगण्य रहेगी। इसकी मोहकता के समक्ष सुगन्ध की महत्ता भी हल्की पड़ जायगी। सुनो, इसकी रसालता की महत्ता इतनी अधिक है कि श्रवणेन्द्रिय में भी जिह्वा निकल आयेगी और समस्त इन्द्रियों में परस्पर कलह उत्पन्न हो जायगा। सहज देखा जाय तो यह शब्द केवल कानों का विषय है, परन्तु जिह्वा (जीभ) बोलेगी कि यह शब्द मेरा रसविषय है। नासिका को ऐसा लगेगा कि इन शब्दों के संयोग से मुझे सुगंध मिल जाती तो अच्छा होता। तो यही शब्द अनुक्रम से रस और सुगंध बन जायगा।

इनके विषय में एक और विलक्षण बात यह है कि उच्चारण की जाने वाली इन बातों का स्वरूप देखकर आँखों को भी ऐसी तृप्ति प्राप्त होगी कि वे सद्यः कह बैठेंगे कि यह तो सौन्दर्य की खान ही खुल गयी! और जिस समय सम्पूर्ण पदों की रचना होगी, उस समय श्रोताओं का मन दौड़कर बाहर निकलने लगेगा, क्योंकि वह चाहेगा कि मैं इन शब्दों का प्रगाढ़ आलिंगन कर लूँ। इस प्रकार सारी इन्द्रियाँ अपनी इच्छानुसार मेरे इन शब्दों से प्रीति करेंगी; पर ये शब्द समानरूप से सबका निराकरण करेंगे। जैसे सूर्य अकेला ही पूरे जगत् में समानरूप से चेतना उत्पन्न करता है (सबको जगाता है), वैसे ही इन शब्दों की व्यापकता भी अत्यन्त असाधारण है। जो लोग इन शब्दों के भाव को जानने का प्रयत्न करेंगे, उन्हें ऐसा प्रतीत होगा कि ये शब्द नहीं हैं, अपितु इनके रूप में हमें चिन्तामणि ही मिला हुआ है अर्थात् इन शब्दों में चिंतामणि जैसे गुण दीखेंगे। पर ये बातें बहुत हो चुकीं। अब मैं देशी भाषा के शब्दों की थाली में ब्रह्मरस परोसकर निष्कामजनों के समक्ष यह ग्रन्थरूपी भोजन प्रस्तुत करता हूँ। आत्मज्ञानरूपी ज्योति जो कभी धीमी नहीं होती, वही ज्योति अब दीवट में रखी गयी है, वही लोग यह भोजन कर सकेंगे जो इस प्रकार इसका सेवन करेंगे कि इन्द्रियों को कुछ पता न चले। अतः इस समय श्रोताओं को कानो का भी सहारा त्याग देना चाहिये और केवल मन के सहयोग से ही यह भोजन करना चाहिये। इन शब्दों को ऊपर-ऊपर जो दिखावटी आच्छादन है, उसे उतारकर पृथक् कर दें और अन्तः स्थित जो ब्रह्मभाव है, उसके साथ एकरूप हो जायँ और तब अनायास ही अखण्ड सुख से सुखी हों।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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