ज्ञानेश्वरी पृ. 140

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-5
कर्म संन्यास योग


योऽन्त: सुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव य: ।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणां ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥24॥
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषय: क्षीणकल्मषा: ।
छिन्नद्वैधा यतात्मान: सर्वभूतहिते रता: ॥25॥

इसलिये पीछे का यह सब रहने दें। जो बात कहने में आ ही नहीं सकती हो, उसके सम्बन्ध में क्या कहा जाय? जिस व्यक्ति को आत्मस्वरूप का अनुभव हो जायगा, वह इस स्पष्ट रचना से ही सब कुछ समझ लेगा आत्माराम मनुष्य को ही इसका अनुभव होगा। जो लोग इस आत्मसुख से भरे हुए हैं और अपने स्वरूप में ही निमग्न रहते हैं, मैं समझता हूँ कि वे निखिल ब्रह्मानन्द के कलेवर (पुतले) हैं। उसी आनन्द के स्वरूप, सुख के अंकुर अथवा महाबोध ने अपने लिये मन्दिर बनाया है। उन्हें विवेक का जन्मस्थान अथवा परब्रह्म का स्वरूप अथवा ब्रह्मविद्या से अलंकृत अवयव समझना चाहिये। उन्हें सत्त्वगुण की सात्त्विकता या चैतन्य के अवयव जानना चाहिये। जब यह विशद विवेचन इतने जोरों पर आता है, तब श्रीगुरु निवृत्तिनाथ कहते हैं-“बहुत हुआ, अब रहने दो एक-एक बात को, एक-एक कल्पना को कब तक रँगते चलागे! तुम तो सन्तों की स्तुति में इतना खो जाते हो कि फिर तुम्हें कथा-प्रसंग का स्मरण भी नहीं रह जाता और तुम विषयान्तर से भी ठीक बोलते हो, पर अब इस रसविस्तार को समेट लो और ग्रन्थार्थ का दीपक प्रज्वलित करो तथा संतजनों के हृदयरूपी मन्दिर में मंगल-प्रभात करो।” गुरुश्रेष्ठ श्रीनिवृत्तिनाथ का यह अभिप्राय समझकर मैं ज्ञानदेव कहता हूँ कि फिर भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से जो कुछ कहा वह सब आप लोग ध्यानपूर्वक सुनिये।

श्रीकृष्ण ने कहा-“हे अर्जुन! जिन लोगों को अनन्त सुख के अगाध दह का तल प्राप्त हो जाता है, वे वहीं स्थिर होकर तद्रूप हो जाते हैं। अथवा जो लोग आत्मज्ञान के विशुद्ध प्रकाश के सहयोग से सारा संसार अपनी ही आत्मा में देखते हैं, उन्हें शरीरधारी परब्रह्म कहने में कोई हानि नहीं है। यह परब्रह्म परम सत्य, सर्वोत्तम, अविनाशी और अपार है। इस परब्रह्मरूपी देश में निवास करने का अधिकारी वे ही लोग होते हैं, जो लोग सचमुच निष्काम होते हैं, यह केवल महर्षियों के लिये सुरक्षित है; इसमें विरक्तों की ही हिस्सेदारी है और ये संशयरहित व्यक्ति को ही फल देने वाला है। इसके अभ्युदय का कभी अवसान नहीं होता।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (136-147)

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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