ज्ञानेश्वरी पृ. 138

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-5
कर्म संन्यास योग

हे पाण्डव! मछली को फँसाने वाली बंसी में उसके प्रलोभन की वस्तु के रूप में जो आमिष का कवल लगाया जाता है, वह मछली के लिये तभी तक मुग्ध करने वाला होता है, जब तक मछली उसे नहीं निगलती। वैसे ही तुम यह अच्छी तरह से समझ लो कि ठीक वही दशा विषय-संग की है। हे किरीटी! विरक्तों की दृष्टि से यदि इन विषयों को देखा जाय तो ये ऐसे पाण्डुरोगियों की तरह जान पड़ते हैं जो देखने में ऊपर से फूले हुए हैं‚ अंततः ये विषय घात करने वाले हैं। इसीलिये विषयों के सेवन में जो सुख प्रतीत होता है, वस्तुतः वह आरम्भ से अन्त तक केवल दुःख-ही-दुःख है। पर अज्ञानीजन करें क्या? उनसे विषयों का भोग किये बिना रहा ही नहीं जाता अर्थात् उनका विषय भोगने के बिना काम ही नहीं चलता। वे बेचारे भीतरी रहस्यों से अनभिज्ञ होते हैं, इसलिये वे बड़े ही शौक से विषयों का भोग करते हैं। भला तुम्हीं बतलाओ कि क्या कभी पीप के कीचड़ में रह रहे कीड़ों को पीप से घृणा होती है? उन दुःखी जीवों के लिये तो वह दुःख उनका जीवन बना है अर्थात् उनके लिये वही आत्मसुख है। वे तो विषयरूपी कीचड़ में दादुर बनते हैं और विषयासक्त होकर भोगरूपी जल में जलचर की भाँति रहते हैं। फिर वे उस कीचड़ और उस जल को कैसे त्याग सकते हैं। फिर भी यदि ये जीव विषयों से अनासक्त हो गये तो जो दुःखदायक योनियाँ हैं वे सब निरर्थक हो जायँगी कि नहीं? कहीं रत्तीभर विश्राम पाये बिना गर्भवास इत्यादि के संकटों और जन्म-मरण की यन्त्रणाओं के दुर्गम मार्ग का अतिक्रमण करने के लिये भला कौन तैयार होता? यदि विषयों में आसक्त जीव विषयों का ही परित्याग कर दें तो बेचारे महादोषों का कहाँ ठिकाना लगे? और-तो-और यह ‘संसार’ शब्द ही मिथ्या साबित हो जायगा तथा उसका अवसान भी हो जायगा। इसीलिये मिथ्या सुख के चक्कर में पड़े हुए जिन लोगों ने विषयरूपी दुःख को स्वीकार किया है, उन्हीं लोगों ने ही इस पूरे मायिक भ्रम को यथार्थ बना दिया है।

हे वीर शिरोमणि! यदि वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो ये विषय बहुत ही बुरे हैं। इसलिये कभी भूलकर भी इन विषयों के मार्ग पर पैर नहीं रखना चाहिये। जो व्यक्ति विरक्त होते हैं, वे इन विषयों को विष समझकर छोड़ देते हैं। क्योंकि वह निरिच्छ (इच्छारहित) होने के कारण विषयों का दिखाया हुआ दुःखरूपी सुख उनको भाता नहीं अर्थात् वह सुख उनको अच्छा नहीं लगता।[1]

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681
  1. (110-128)

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