ज्ञानेश्वरी पृ. 137

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-5
कर्म संन्यास योग


ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध: ॥22॥

जिन लोगों को आत्मस्वरूप के दर्शन नहीं होते, वे लोग ही ऐन्द्रिक विषयों के चक्कर में पड़ते हैं। जैसे भूख से व्याकुल दरिद्र व्यक्ति भूसी भी खा जाता है अथवा प्यास से व्याकुल मृग वास्तविक जल के भ्रम से बालुकामय भूमि को ही जल समझकर त्वरित गति से उसके पास आ पहुँचते हैं अर्थात् मरुभूमि में आ पहुँचते हैं। वैसे ही जिन्हें आत्मस्वरूप के दर्शन नहीं होते, जिन्हें सदा आत्मसुख की दरिद्रता सताती ही रहती है, उन्हीं को ये विषयसुख बहुत ही रुचिकर प्रतीत होते हैं। पर यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो विषयों में कोई सुख है ही नहीं और यदि कहा जाय कि इन विषयों में सुख है तो फिर संसार के सारे कार्य बिजली की (आकाश में चमकने वाली बिजली) ही चमक में क्यों नहीं होते, उसी के प्रकाश से जगत् में प्रकाश क्यों नहीं होता? यदि आकाशरूपी छत की छाया से ही वायु, वर्षा और गरमी का निवारण हो सकता हो, तो फिर तीन मंजिले पक्के मकान क्यों बनाये जायँ? अतः विषय के लिये सुख शब्द का प्रयोग करना ही सर्वथा अर्थहीन है। जहर के प्याज को (बचनाग को) मधुर कहा जाय अथवा जैसे पाप-ग्रह भौम को भी लोग ‘मंगल’ कहते हैं, किंवा, मृगजल को भ्रम से लोग जल कहते हैं, वैसे ही लोग सुख शब्द का प्रयोग विषयों के सम्बन्ध में भी करते हैं। पर वास्तव में इन विषयों के लिये ‘सुख’ शब्द का प्रयोग करना कोरी बकवास ही है। अच्छा, रहने दो ये सब बातें। अब तुम मुझे सिर्फ इतना ही बतलाओ कि सर्प के फण की छाया चूहे के लिये कहाँ तक शांति देने वाली हो सकती है?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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