ज्ञानेश्वरी पृ. 134

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-5
कर्म संन्यास योग


ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मन: ।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥16॥

जिस समय इस अज्ञान का समूल नाश हो जाता है, उस समय भ्रान्ति की कालिमा भी मिट जाती है और तब मनुष्यों को ईश्वर का कर्तृत्व अनुभव में आता है। यदि यह बात चित्त में समा जाय कि एकमात्र ईश्वर ही अकर्ता है, तो यह तत्त्व स्वतः सिद्ध हो जाता है कि-‘मैं ईश्वर हूँ।’ जब चित्त पर ज्ञान का प्रकाश पड़ता है, तब तीनों लोकों में कोई भेदभाव रह ही नहीं जाता। ऐसी अवस्था में मनुष्य स्वानुभव से अपने समान ही सारे संसार को मुक्त स्थिति (आत्मस्वरूप) में ही देखता है। भला, तुम्हीं बतलाओ कि क्या कभी ऐसा भी हुआ है कि सूर्य का उदय होते ही पूर्व दिशा के घर में दिवाली हो और अन्य दिशाओं का अन्धकार ज्यों-का-त्यों बना रहे? बल्कि पूर्व दिशा जैसी प्रकाशमान होती है वैसी ही अन्य दिशाएँ भी प्रकाशमान होती हैं।[1]


तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणा: ।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषा: ॥17॥

बुद्धि के निश्चित होते ही आत्मज्ञान होता है। मन में यह बात ठीक तरह से बैठ जाती है कि हम ब्रह्मरूप हैं और मन स्थिरभाव से ब्रह्मतत्त्व में रहता है तथा अहर्निश तन्मयता बनी रहती है। इस प्रकार का व्यापक ज्ञान जिसके हृदय में समाविष्ट हो जाता है, उसी को समदृष्टि समझना चाहिये। अब इससे अधिक मैं और क्या बतलाऊँ! यदि यह बात कही जाय कि वह अपने ही सदृश सारे संसार को आत्मस्वरूप समझता है, तो इसमें आश्चर्य ही क्या है? परन्तु जैसे दैव में कभी कुतूहल से भी दैन्य दिखायी नहीं पड़ता अथवा विवेक में जैसे कभी भ्रान्ति का नामोनिशान नहीं देखता अथवा जैसे सूर्य में कभी स्वप्न में भी अन्धकार का कहीं पता ही नहीं चलता अथवा जैसे अमृत के कानों में कभी मृत्यु की कथा की भनक तक नहीं पड़ती अथवा जैसे चन्द्रमा को कभी संताप का स्मरण भी नहीं होता वैसे ही ज्ञानिजनों में प्राणिमात्र के सम्बन्ध में कभी कोई भेदभाव दिखायी ही नहीं पड़ता।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (83-86)
  2. (87-92)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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