श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-5
कर्म संन्यास योग
यदि सर्वेश्वर के सम्बन्ध में विचार किया जाय तो वह अकर्ता ही सिद्ध होता है। पर वही इस त्रिभुवन की रचना भी करता है। यदि हम उसे कर्ता कहें तो उससे कर्म का स्पर्श ही नहीं होता, क्योंकि उसके उदासीन वृत्ति वाले हाथ-पाँव कर्म में लिप्त नहीं होते। उसकी योगनिद्रा (सहस्थिति) न तो कभी भंग ही होती है और न ही कभी उसके अकर्तृत्व में कोई अन्तर ही पड़ता है; तो भी वह पंचमहाभूतों से इस आकारयुक्त व्यूह का निर्माण करता है। वह है तो जगत् का जीवन ही, फिर भी वह कभी किसी के कहने में नहीं आता। यह जगत् बनता और बिगड़ता रहता है, पर इसकी उसे खबर तक नहीं होती।[1]
चाहे सारे पाप-पुण्य उसे चतुर्दिक् आवेष्टित किये ही क्यों न रहें, पर फिर भी वह कभी उन्हें देखता तक नहीं। वह इन पाप-पुण्यों को उदासीन भाव से देखने वाला साक्षी तो होता ही नहीं; तो फिर और बातों की चर्चा ही क्या? वह शरीर की संगति से शरीरी बनकर अवतार-लीला तो करता है, पर उस प्रभु की मूर्तता अथवा अमूर्तता कभी मलीन नहीं होती। चराचर जगत् में यह जो मत विख्यात है कि वह संसार की रचना करता है, उसका पालन-पोषण करता है और फिर उसका संहार भी करता है, हे पाण्डुकुँवर! यह उनका केवल अज्ञान ही जानना चाहिये।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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