ज्ञानेश्वरी पृ. 133

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-5
कर्म संन्यास योग


न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु: ।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥14॥

यदि सर्वेश्वर के सम्बन्ध में विचार किया जाय तो वह अकर्ता ही सिद्ध होता है। पर वही इस त्रिभुवन की रचना भी करता है। यदि हम उसे कर्ता कहें तो उससे कर्म का स्पर्श ही नहीं होता, क्योंकि उसके उदासीन वृत्ति वाले हाथ-पाँव कर्म में लिप्त नहीं होते। उसकी योगनिद्रा (सहस्थिति) न तो कभी भंग ही होती है और न ही कभी उसके अकर्तृत्व में कोई अन्तर ही पड़ता है; तो भी वह पंचमहाभूतों से इस आकारयुक्त व्यूह का निर्माण करता है। वह है तो जगत् का जीवन ही, फिर भी वह कभी किसी के कहने में नहीं आता। यह जगत् बनता और बिगड़ता रहता है, पर इसकी उसे खबर तक नहीं होती।[1]


नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभु: ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तव: ॥15॥

चाहे सारे पाप-पुण्य उसे चतुर्दिक् आवेष्टित किये ही क्यों न रहें, पर फिर भी वह कभी उन्हें देखता तक नहीं। वह इन पाप-पुण्यों को उदासीन भाव से देखने वाला साक्षी तो होता ही नहीं; तो फिर और बातों की चर्चा ही क्या? वह शरीर की संगति से शरीरी बनकर अवतार-लीला तो करता है, पर उस प्रभु की मूर्तता अथवा अमूर्तता कभी मलीन नहीं होती। चराचर जगत् में यह जो मत विख्यात है कि वह संसार की रचना करता है, उसका पालन-पोषण करता है और फिर उसका संहार भी करता है, हे पाण्डुकुँवर! यह उनका केवल अज्ञान ही जानना चाहिये।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (76-79)
  2. (80-82)

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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