ज्ञानेश्वरी पृ. 121

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग


अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मन: ॥40॥

हे अर्जुन! जिस प्राणी के मन में इस ज्ञान को पाने की अभिलाषा न हो, उसका जीवन धारण करने की अपेक्षा मर जाना ही उचित है। जैसे उजड़ा हुआ घर अथवा प्राणशून्य देह होता है। वैसे ही ज्ञानशून्य जीवन भी सिर्फ भ्रम से भरा हुआ ही होता है अथवा यदि किसी प्राणी की ऐसी अवस्था हो कि उसे यह ज्ञान तो न मिला हुआ हो, पर फिर भी जिसके अन्तःकरण में इस ज्ञान के प्रति कुछ आदरभाव हो, तो यह जान लेना चाहिये कि उसके लिये यह ज्ञान प्राप्त कर लेना सम्भव है। उस व्यक्ति का कोई मूल्य नहीं है जिसे ज्ञान प्राप्त न हुआ हो। यदि किसी मनुष्य में यह ज्ञान भी न हो और उसके मन में ज्ञान के प्रति कोई आदर भी न हो, तो उसके विषय में यह निर्विवादरूप से जान लेना चाहिये कि वह संशय की अग्नि में भस्मीभूत हो गया है।

जब किसी मनुष्य के मन में अपने-आप ऐसी अरुचि उत्पन्न हो जाती है कि उसे अमृत भी नहीं भाता, तब निश्चितरूप से यही जान लेना चाहिये कि उसकी मृत्यु उसके सिर पर मँडरा रही है। इसी प्रकार जो मनुष्य विषयों के सुख में आबद्ध रहता है और जो ज्ञान के विषय में बेपरवाह रहता है, उसके विषय में स्पष्ट रूप से यह जान लेना चाहिये कि स्वयं संशय ने उसे अच्छी तरह से दबोच लिया है और जो संशय में पड़ता है, उसका सर्वनाश ही होता है। वह इस लोक और परलोक के सुखों से हाथ धो बैठता है। जो भीषण ज्वर से पीड़ित रहता है, उसे ग्रीष्म और शीत के भेद का पता ही नहीं चलता। ऐसा मनुष्य जिस प्रकार अग्नि और चन्द्रिका-इन दोनों को एक समान ही समझता है, उसी प्रकार संशयित मनुष्य को सत्य और असत्य, अनुकूल और प्रतिकूल, भरा और बुरा, हित और अहित का भेद ज्ञात ही नहीं हो पाता। जैसे जन्म से अन्धे व्यक्ति को रात और दिन का पता नहीं चलता, वैसे ही संशयित मनुष्य को भी किसी बात का पता नहीं चलता। इसलिये इस संसार में संशय से बढ़कर और कोई घोर पाप नहीं है। प्राणियों को पकड़कर उनके सर्वनाश के लिये तो यह एक जाल ही है। इसलिये तुम ज्ञान के अभाव में उत्पन्न होने वाला यह संशय छोड़ दो। सबसे पहले तुम्हें केवल इस संशय को ही जीतना चाहिये। जब अज्ञान का अँधेरा छा जाता है, तब यह संशय और बलवान् हो जाता है और श्रद्धा का मार्ग पूर्णतया अवरुद्ध हो जाता है फिर यह इतना बढ़ता है कि अन्तःकरण में समा ही नहीं सकता; वह बुद्धि को ग्रस लेता है और तब शीघ्र ही उस मनुष्य के लिये तीनों लोक संशयमय हो जाते हैं।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (193-206)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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