श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग
यदि ठीक तरह से विचार किया जाय तो यह कथन एकदम असंगत है कि मन का मल इस परम ज्ञान से नष्ट नहीं हो सकता। फिर इस संसार में ज्ञान से बढ़कर और कोई पावन चीज भी तो नहीं है। जैसे इस संसार में चैतन्य के अलावा और कोई दूसरी वस्तु नहीं है जिसकी तुलना चैतन्य के साथ की जा सके, वैसे ही यह ज्ञान भी ऐसा उत्तम है कि इसके टक्कर का और कोई पदार्थ है ही नहीं। यदि इस अति तेजस्वी सूर्य-बिम्ब की कसौटी पर उसका प्रतिबिम्ब खरा उतर सकता हो अथवा यदि इस आकाश का गट्ठर बनाया जा सकता हो अर्थात् आकाश को अपने वशीभूत किया जा सकता हो अथवा यदि पृथ्वी के माप का भार हाथ में लिया जा सकता हो, तभी, हे पाण्डुकुँवर! संसार से इस ज्ञान की उपमा भी प्राप्त हो सकती है और नहीं तो नहीं। इसीलिये सब दृष्टियों से देखने से और बारंबार विचार करने से यही एक बात निश्चित होती है कि इस ज्ञान की पवित्रता ज्ञान में ही है और वह अन्यत्र अप्राप्य है। जैसे यदि किसी को अमृत के स्वाद के बारे में बतलाना हो कि वह कैसा होता है, तो यही कहना पड़ता है कि वह अमृत-जैसा ही होता है, वैसे ही ज्ञान के लिये भी सिर्फ ज्ञान की ही उपमा दी जा सकती है; किन्तु अब इस सम्बन्ध में और अधिक कहना केवल समय गँवाना ही है।” श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर अर्जुन ने कहा-“हे देव! आप जो कुछ कहते हैं, वही सत्य है।” तत्त्पश्चात् अर्जुन ने मन-ही-मन सोचा कि अब श्रीकृष्ण से इस ज्ञान को पहचानने का तरीका भी पूछना चाहिये और इसके लक्षण क्या हैं इसकी जानकारी भी कर लेनी चाहिये; किन्तु तत्क्षण श्रीकृष्ण ने अर्जुन के मनोभाव को समझ लिया और कहा-हे किरीटी! अब मैं इस ज्ञान के साधन का उपाय तुम्हें बतलाता हूँ, उसे ध्यानपूर्वक सुनो।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (178-186)
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