ज्ञानेश्वरी पृ. 115

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग


अपरे नियताहार: प्राणान्प्राणेषु जुहृति ।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषा: ॥30॥

कुछ ऐसे लोग भी हैं जो वज्रयोग अर्थात् वज्रासन द्वारा मूलबन्ध के पद्धति से विषयरूपी आहारों का नियमन करके धैर्यपूर्वक प्राणवायुरूपी अग्नि में समस्त प्राणों का ही हवन करते हैं अर्थात् प्राणों से ही प्राण का लय करते हैं। इस प्रकार का यज्ञ-साधन करके मन के समस्त मल को निकालकर दूर फेंकने वाले ये सब यज्ञकर्ता मोक्ष की ही कामना करते हैं। जो लोग अज्ञान को जलाकर केवल सहज आत्मस्वरूप ही बचाये रहते हैं, उनमें फिर अग्नि और यज्ञकर्ता का कोई भेद ही नहीं रहता। फिर ऐसी दशा में यज्ञकर्ता का हेतु पूर्ण हो जाता है; यज्ञ की क्रिया भी समाप्त हो जाती है और कर्मों के सारे बखेड़े ही समाप्त हो जाते हैं। उस समय विचार और हेतु के प्रवेश की तनिक भी गुंजाइश नहीं रह जाती और द्वैत भावना का दोष छू भी नहीं सकता यानी द्वैतभाव से लिम्पायमान नहीं होते।[1]


यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् ।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्य: कुरुसत्तम ॥31॥

इस प्रकार यज्ञ-विधान की समाप्ति में जो अविनाशी’ अनादि तथा निर्दोष ज्ञान मिलता है उसी का ब्रह्मनिष्ठ लोग ‘अहं ब्रह्मास्मि’ मन्त्र का जप करते हुए सेवन करते हैं। इस प्रकार जो लोग यज्ञ-शेष के अमृत से सन्तुष्ट होकर अमरता प्राप्त करते हैं, वे अनायास ही ब्रह्मस्वरूप हो जाते हैं; किन्तु जिन लोगों से कभी इस आत्मसंयमरूपी अग्नि की सेवा नहीं हो सकती और जो लोग जन्म ले करके भी योगरूपी यज्ञ नहीं करते, उन्हें विरक्ति कभी भी जयमाल नहीं डालती। जो लोग लौकिक क्रियाओं को ठीक तरह से न कर सकते हों, अर्थात् जिनका इहलोक में ही भाग्य ठीक नहीं है, उनके विषय में पारलौकिक सुख की तो बात ही क्या की जाय? हे पाण्डुकुँवर! ऐसे लोगों की तो बात ही छोड़ो।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (147-151)
  2. (152-155)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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