ज्ञानेश्वरी पृ. 114

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग


द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतय: संशितव्रता: ॥28॥

उनमें किसी की ‘द्रव्ययज्ञ’ ऐसी संज्ञा है। कुछ यज्ञ तपरूप सामर्थ्य से उत्पन्न होते हैं, कितने ही योगयज्ञ कहे गये हैं। कितने ही यज्ञ में शब्द से शब्दों का हवन करते हैं (वेदों के शब्द का उच्चारण करते हैं) उसे ‘वाग्यज्ञ’ कहते हैं। जिसमें ज्ञान से (जानी जाने वाली वस्तु ‘ब्रह्म’) जाना जाता है, वह ‘ज्ञानयज्ञ’ कहा जाता है। पर हे अर्जुन! ये अब यज्ञ अत्यन्त विकट है, क्योंकि इनका अनुष्ठान बहुत ही कठिन है। परन्तु जो लोग जितेन्द्रिय है, वे अपनी सामर्थ्य से इन यज्ञों का साधन कर सकते हैं। वे उस काम में कुशल होते हैं और योगसमृद्धि से सम्पन्न होते हैं। इसलिये वे अपने आत्मस्वरूप में जीवबुद्धि का हवन करते हैं।[1]


अपाने जह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथा परे ।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणा: ॥29॥

कुछ लोग अपानवायुरूपी अग्नि की ज्वाला में अभ्यासयोग से प्राणवायुरूपी द्रव्यों का हवन करते हैं। कुछ ऐसे भी लोग हैं जो प्राणवायु में अपानवायु की आहुति देते हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो प्राण तथा अपान-इन दोनों का ही निरोध कर लेते हैं। हे पाण्डुकुँवर! ऐसे योगियों को प्राणायामी कहते हैं[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (141-144)
  2. (145-146)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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