श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग
उनमें किसी की ‘द्रव्ययज्ञ’ ऐसी संज्ञा है। कुछ यज्ञ तपरूप सामर्थ्य से उत्पन्न होते हैं, कितने ही योगयज्ञ कहे गये हैं। कितने ही यज्ञ में शब्द से शब्दों का हवन करते हैं (वेदों के शब्द का उच्चारण करते हैं) उसे ‘वाग्यज्ञ’ कहते हैं। जिसमें ज्ञान से (जानी जाने वाली वस्तु ‘ब्रह्म’) जाना जाता है, वह ‘ज्ञानयज्ञ’ कहा जाता है। पर हे अर्जुन! ये अब यज्ञ अत्यन्त विकट है, क्योंकि इनका अनुष्ठान बहुत ही कठिन है। परन्तु जो लोग जितेन्द्रिय है, वे अपनी सामर्थ्य से इन यज्ञों का साधन कर सकते हैं। वे उस काम में कुशल होते हैं और योगसमृद्धि से सम्पन्न होते हैं। इसलिये वे अपने आत्मस्वरूप में जीवबुद्धि का हवन करते हैं।[1]
कुछ लोग अपानवायुरूपी अग्नि की ज्वाला में अभ्यासयोग से प्राणवायुरूपी द्रव्यों का हवन करते हैं। कुछ ऐसे भी लोग हैं जो प्राणवायु में अपानवायु की आहुति देते हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो प्राण तथा अपान-इन दोनों का ही निरोध कर लेते हैं। हे पाण्डुकुँवर! ऐसे योगियों को प्राणायामी कहते हैं[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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