श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-4
ज्ञानकर्म संन्यास योग
हे पार्थ! कुछ ऐसे लोग भी हैं जो इसी प्रकार संयम का अग्निहोत्र करके पापों से सर्वथा शुद्ध हो गये हैं अर्थात् इस प्रकार कई एक अपने सब दोषों का प्रक्षालन करते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो हृदयरूपी अरणी का घर्षण कर अग्नि उत्पन्न करने के लिये विवेक को मथानी बनाते हैं। वे मथानी को शांति से सृदृढ़ पकड़ लेते हैं और ऊपर से सात्त्विक धैर्य के साथ मजबूती से पकड़कर गुरु-उपदेशरूपी डोरी से जोर से मंथन करते हैं। इस प्रकार अनवरत भली-भाँति मंथन करते रहने पर तत्काल ही उसका फल भी प्राप्त हो जाता है; क्योंकि ज्ञानाग्नि प्रकट हो जाती है। पर इस ज्ञानरूपी अग्नि के प्रज्वलित होने से पूर्व जो थोड़ा-सा धुआँ निकलता है, वही ऋद्धि-सिद्धियों का मोह है। यह धुआँ जब अति शीघ्र ही निकल जाता है, तब पहले ज्ञानरूपी अग्नि की अत्यन्त सूक्ष्म चिंगारी उत्पन्न होती है। यम, दम इत्यादि से सुखाये जाने के कारण जो मन पहले से ही हलका हुआ है, वही मन इस चिंगारी के लिये ईंधन का काम देता है अर्थात् ज्ञानरूप चिंगारी को प्रज्वलित करता है। जब इससे तीव्र ज्वाला उत्पन्न होती है, तब भिन्न-भिन्न वासनाएँ ईंधन के रूप में ममतारूपी घी के साथ भस्मीभूत हो जाती हैं। उस समय दीक्षित व्यक्ति ‘सोऽहम्’ मन्त्र का उच्चारण करते हुए प्रज्वलित ज्ञानरूपी अग्नि में इन्द्रियों के कर्मों की आहुति देते हैं। तदनन्तर, प्राण-कर्मरूपी स्रुवा नामक दर्भपात्र से उस अग्नि में पूर्णाहुति दी जाती है और तब अन्त में ब्रह्म-तादात्म्य की एकरूप अवस्था में अवभृथ-स्नान होता है। इसके बाद वे यज्ञकर्ता संयम-अग्नि में इन्द्रिय-आदि होमद्रव्य से हवन करने इस संयमरूपी यज्ञ का बचा हुआ हविर्भाग, जो आत्मज्ञान का आनन्द है, पुरोडाश के रूप में ग्रहण करते हैं। अनेक लोग इस प्रकार का यज्ञ विधान करके तीनों लोकों से मुक्त हो गये हैं। अब तक मैंने जो यज्ञ-विधान बतलाये हैं, वे देखने में भले ही पृथक्-पृथक् जान पड़े, पर उन सबका साध्य एक ही है और वह साध्य ब्रह्म के साथ समरसता प्राप्त करना ही है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (131-140)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |